Monday, May 24, 2010

मन यदि संसार में उलझता है तो अपना सत्यानाश करता है। मन यदि परमात्मा में लगता है तो अपना एवं अपने सम्पर्क में आने वालों का बेड़ा पार करता है। इसलिए खूब सँभल-सँभलकर जीवन बिताओ। समय बड़ा मूल्यवान है। बीते हुए क्षण फिर वापस नहीं आते। निकला हुआ तीर फिर वापस नहीं आता। निकला हुआ शब्द वापस नहीं आता। सरिता के पानी में तुम एक बार ही स्नान कर सकते हो, दुबारा नहीं। दुबारा गोता लगाते हो तब तक तो वह पानी कहीं का कहीं पहुँच जाता है। ऐसे ही वर्त्तमान काल का तुम एक बार ही उपयोग कर सकते हो। यदि वर्त्तमानकाल भूतकाल बन गया तो वह कभी वापस नहीं लौटेगा। अतः सदैव वर्त्तमानकाल का सदुपयोग करो।

कौन क्या करता है इस झंझट में मत पड़ो। मेरी जात क्या है उसकी क्या जात है, मेरा गाँव कौन-सा है उसका गाँव कौन-सा है – अरे भैया ! सब इसी पृथ्वी पर हैं और एक ही आकाश के नीचे हैं। छोड़ दो मेरे गाँव तेरे गाँव पूछने की झंझट को।

हम यात्रा में जाते हैं तब लोग पूछते हैं- "तुम्हारा कौन सा गाँव ? तुम किधर से आये हो ?" अरे भैया ! हमारा गाँव ब्रह्म है। हम वहीं से आ रहे हैं, उसी में खेल रहे हैं और उसी में समाप्त हो जाएँगे। लेकिन यह भाषा समझने वाला कोई मिलता ही नहीं है। बड़े खेद की बात है कि सब लोग इस मुर्दे की पूछताछ करते हैं कि कहाँ से आये हो। जो मिट्टी से पैदा हुआ, मिट्टी में घूम रहा है और मिट्टी में मिलने के लिए ही बढ़ रहा है उसी का नाम, उसी का गाँव, उसी का पंथ, सम्प्रदाय पूछकर अपना भी समय गँवाते हैं और संतों का भी समय खराब कर देते हैं।

अपना नाम, अपना गाँव सच पूछो तो एक बार भी आपने ठीक से जान लिया तो बेड़ा पार हो जाएगा। अपना गाँव आज तक तुमने नहीं देखा। अपने घर का पता तुम दूसरों से भी नहीं पूछ पाते हो, अपने को तो पता नहीं लेकिन संतों ने जो पता बताया उसको भी नहीं समझ पाते हो।

दूसरे विश्वयुद्ध की एक घटना है। युद्ध में एक फौजी को बहुत बुरी तरह चोट लग गई थी। वह काफी समय तक बेहोश रहा। साथी उस अपने अड्डे पर उठा लाये। डॉक्टरों ने इलाज किया। वह शरीर से तो ठीक हो गया लेकिन अपनी स्मृति को खो बैठा। वह अपना नाम तक भूल चुका था। उसका कार्ड, उसका मिलिटरी का बैज कहीं से भी हाथ न लगा। वह कौन है, कहाँ का निवासी है कुछ भी पता न चल पाया। मनोवैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि उसे अपने देश में घुमाया जाय। अपना गाँव देखते ही उसकी स्मृति जग सकती है, वह ठीक सकता है। व्यवस्था की गई। दो आदमी उसके साथ रखे गये। इंग्लैंड के सब स्टेशनों पर उसे गाड़ी से नीचे उतारा जाता था, स्टेशन का साइन बोर्ड आदि दिखाया जाता, इधर-उधर घुमाया जाता। मरीज का कोई भी प्रतिभाव न दिखता तो उसे गाड़ी में बिठाकर दूसरे स्टेशनों पर ले जाते। इस प्रकार पूरा इंगलैंड घूम चुके लेकिन कहीं भी उसकी स्मृति जागी नहीं। उसके दोनों साथी निराश हो गये। वापस लौटते समय वे लोग लोकल ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। छोटा सा एक स्टेशन आया। गाड़ी रूकी। मरीज को नीचे उतारा। उसे उतारना व्यर्थ था लेकिन चलो, आखिरी दो-चार स्टेशन बाकी हैं तो विधि कर लें। फौजी को नीचे उतारा। साथी चाय-जलपान की व्यवस्था में लगे। उस फौजी ने स्टेशन को देखा, साइन बोर्ड देखा और उसकी स्मृति जाग आयी। वह तुरन्त फाटक से बाहर हो गया और फटाफट चलने लगा। मोहल्ले लाँघता-लाँघता वह अपने घर पहुँच गया। उसने देखा कि यह मेरी माँ है, यह मेरा बाप है। उसकी खोई हुई स्मृति जाग उठी।

सदगुरू भी तुम्हें अलग-अलग प्रयोगों से, अलग-अलग शब्दों से, अलग-अलग प्रक्रियाओं से तुम्हें यात्रा करवाते हैं, शायद तुम अपने असली गाँव का साइन बोर्ड देख लो, शायद तुम अपने गाँव की गली को देख लो, शायद अपना पुराना घर देख लो, जहाँ से तुम सदियों से बाहर निकल आये हो। तुम अपने उस घर की स्मृति खो बैठे हो। शायद तुम्हे उस घर का, गाँव का कुछ पता चल जाय। काश ! तुम्हें स्मृति आ जाय।

जगदगुरू श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कई गाँव दिखाये। सांख्य के द्वारा गाँव दिखाया, योग के द्वारा गाँव दिखाया, निष्काम कर्म के द्वारा गाँव दिखाया लेकिन अर्जुन अपने घर में नहीं जा रहा था। श्रीकृष्ण ने तब कहाः "हे अर्जुन ! अब तेरी मर्जी। यथेच्छसि तथा कुरू।"

अर्जुन बोलता हैः "नहीं मालिक ! प्रभु ऐसा न करो। मेरी बुद्धि कोई निर्णय नहीं ले सकती। मेरी बुद्धि अपने गाँव में प्रवेश नहीं कर पाती।"

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- "तो फिर छोड़ दे अपनी अक्ल-होशियारी का भरोसा छोड़ दे अपनी ऐहिक बातों का, मेरे-तेरे का और जीने-मरने का ख्याल। छोड़ दे करम-धरम की झंझट को। आ जा मेरी शरण में।

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