Wednesday, June 02, 2010

क्या आप अपने-आपको दुर्बल मानते हो ? लघुताग्रंथी में उलझ कर परिस्तिथियों से पिस रहे हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठे हो ?

…तो अपने भीतर सुषुप्त आत्मबल को जगाओ | शरीर चाहे स्त्री का हो, चाहे पुरुष का, प्रकृति के साम्राज्य में जो जीते हैं वे सब स्त्री हैं और प्रकृति के बन्धन से पार अपने स्वरूप की पहचान जिन्होंने कर ली है, अपने मन की गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर जिन्होंने फेंक दी हैं, वे पुरुष हैं | स्त्री या पुरुष शरीर एवं मान्यताएँ होती हैं | तुम तो तन-मन से पार निर्मल आत्मा हो |

जागो…उठो…अपने भीतर सोये हुये निश्चयबल को जगाओ | सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को विकसित करो |
आत्मा में अथाह सामर्थ्य है | अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके | अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके |

भौतिक जगत में वाष्प की शक्ति, ईलेक्ट्रोनिक शक्ति, विद्युत की शक्ति, गुरुत्वाकर्षण की शक्ति बड़ी मानी जाती है लेकिन आत्मबल उन सब शक्तियों का संचालक बल है |

आत्मबल के सान्निध्य में आकर पंगु प्रारब्ध को पैर मिल जाते हैं, दैव की दीनता पलायन हो जाती हैं, प्रतिकूल परिस्तिथियाँ अनुकूल हो जाती हैं | आत्मबल सर्व रिद्धि-सिद्धियों का पिता है |
बालक सुधरे तो जग सुधरा। बालक-बालिकाएँ घर, समाज व देश की धरोहर हैं। इसलिए बचपन से ही उनके जीवन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। यदि बचपन से ही उनके रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल, शिष्टता और सदाचार पर सूक्ष्म दृष्टि से ध्यान दिया जाय तो उनका जीवन महान हो जायगा, इसमें कोई संशय नहीं है। लोग यह नहीं समझते कि आज के बालक कल के नागरिक हैं। बालक खराब अर्थात् समाज और देश का भविष्य खराब।

बालकों को नन्हीं उम्र से ही उत्तम संस्कार देने चाहिए। उन्हें स्वच्छताप्रेमी बनाना चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त में उठना, बड़ों की तथा दीन-दुःखियों की सेवा करना, भगवान का नामजप एवं ध्यान-प्रार्थना करना आदि उत्तम गुण बचपन से ही उनमें भरने चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त में उठने से आयु, बुद्धि, बल एवं आरोग्यता बढ़ती है। उन्हें सिखाना चाहिए कि खाना चबा-चबाकर खायें। समझदारों का कहना है कि प्रत्येक ग्रास को 32 बार चबाकर ही खायें तो अति उत्तम है।

उनके चरित्र-निर्माण पर विशेष ध्यान देना चाहिए। क्योंकि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ-कुछ गया परंतु चरित्र गया तो सब कुछ गया। यह चरित्र ही है जिससे दो पैरवाला प्राणी मनुष्य कहलाता है। सिनेमा के कारण बालकों का चरित्र बिगड़ रहा है। यदि इसकी जगह पर उन्हे ऊँची शिक्षा मिले तो रामराज्य हो जाय। प्राचीन काल में बचपन से ही धार्मिक शिक्षाएँ दी जाती थीं। माता जीजाबाई ने शिवाजी को बचपन से ही उत्तम संस्कार दिये थे, इसीलिए तो आज भी वे सम्मानित किये जा रहे हैं।

रानी मदलसा अपने बच्चों को त्याग और ब्रह्मज्ञान की लोरियाँ सुनाती थीं। जबकि आजकल की अधिकांश माताएँ तो बच्चों को चोर, डाकू और भूत की बातें सुनाकर डराती रहती है। वे बालकों को डाँटकर कहती हैं- 'सो जा नहीं तो बाबा उठाकर ले जायेगा.... चुप हो जा नहीं तो पागल बुढ़िया को दे दूँगी।' बचपन से ही उनमें भय के गलत संस्कार भर देती हैं। ऐसे बच्चे बड़े होकर कायर और डरपोक नहीं तो और क्या होंगे ? माता-पिता को चाहिए कि बच्चों के सामने कभी बुरे वचन न बोलें। उनसे कभी विवाद की बातें न करें।

बच्चों को सुबह-शाम प्रार्थना-वंदना, जप-ध्यान आदि सिखाना चाहिए। उनके भोजन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। उन्हें शुद्ध, सात्त्विक और पौष्टिक आहार देना चाहिए तथा लाल-मिर्च, तेज मसालेदार भोजन एवं बाजारू हलकी चीजें नहीं खिलानी चाहिए। आजकल लोग बच्चों को चाट-पकौड़े खिलाकर उन्हें चटोरा बना देते हैं।

उन्हें समझाना चाहिए कि सत्संग तारता है और कुसंग डुबाता है। समय के सदुपयोग, सत्शास्त्रों के अध्ययन और संयम-ब्रह्मचर्य की महिमा उन्हें समझानी चाहिए। मधुर भाषण, बड़ों का आदर, आज्ञापालन, परोपकार, सत्यभाषण एवं सदाचार आदि दैवी संपदावाले सदगुण उनमें प्रयत्नतः विकसित करने चाहिए।

अध्यापकों को भी विद्यालय में उनका सूक्ष्म दृष्टि से ध्यान रखना चाहिए। अध्यापक के जीवन का भी विद्यार्थियों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। शिक्षक ऐसा न समझें कि पुस्तकों में लिखी पेटपालू शिक्षा देकर हमने अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिया। लौकिक विद्या के साथ-साथ उन्हें चरित्र-निर्माण की, आदर्श मानव बनने की शिक्षा भी दीजिये। आपकी इस सेवा से यदि भारत का भविष्य उज्जवल बनता है तो आपके द्वारा सुसंस्कारी बालक बनाने की राष्ट्रसेवा, मानवसेवा हो जायेगी।

विद्यालय में अच्छे बच्चों के साथ कुछ उद्दण्ड एवं उच्छ्रंखल बच्चे भी आते हैं। उन पर यदि अंकुश नहीं लगाया गया तो अच्छे बच्चे भी उनके कुसंग में आकर बिगड़ जाते है। याद रखिये 'एक सड़ा हुआ आम पूरे टोकरे के आमों को खराब कर देता है।' इसलिए ऐसे बच्चों को सुसंस्कारवान बनाना चाहिए। बालक तो गीली मिट्टी जैसे होते हैं। शिक्षक एवं माता पिता उन्हें जैसा बनाना चाहें बना सकते हैं।

बालक इंजिन के समान है तथा माता पिता एवं गुरूजन ड्राइवर जैसे हैं। अतः उन्हें ध्यान रखना चाहे कि बालक कैसा संग करता है ? प्रातः जल्दी उठता है कि देर ? कहीं वह समय व्यर्थ तो नहीं गँवाता ? उन्हें बच्चों की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक उन्नति का भी ध्यान रखना चाहिए। कई माता पिता अपने बच्चों को उल्टी सीधी कहानियो की पुस्तकें देते हैं, जिनसे बच्चों के मन, बुद्धि चंचल हो जाते हैं। उनका यह शौक उन्हें आगे चलकर गंदे उपन्यास एवं फिल्मी पत्रिकाएँ पढ़ने का आदी बना देता है और उनका चरित्र गिरा देता है।

इसलिए बच्चों को सदैव सत्संग की पुस्तकें गीता, भागवत, रामायण आदि ग्रन्थ पढ़ने के लिए उत्साहित करना चाहिए। इससे उनके जीवन में दैवी गुणों का उदय होगा। उन्हें ध्रुव, प्रह्लाद, मीराबाई आदि की इस प्रकार कथा-कहानियाँ सुनानी चाहिए, जिनसे वे भी अपने जीवन को महान बनाकर सदा के लिए अमर हो जायें।

अंत में बालकों से मुझे यही कहना है कि माता, पिता एवं गुरूजनों की सेवा करते रहें, यही उत्तम धर्म है। गरीब एवं दीन दुःखियों को सँभालते रहें तथा ईश्वर को सदैव याद रखें जिसने हम सभी को बनाया है, भले कर्म करने की योग्यताएँ दी हैं। उसे स्मरण करने से सच्ची समृद्धि की प्राप्ति होगी।
जितने बढ़े व्यक्ति को हराया जाता है, उतना ही जीत का महत्त्व बढ़ जाता है । मन एक शक्तिशाली शत्रु है । उसे जीतने के लिए बुद्धिपूर्वक यत्न करना पड़ता है । मन जितना शक्तिशाली है, उस पर विजय पाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । मन को हराने की कला जिस मानव में आ जाती है, वह मानव महान् हो जाता है ।

‘श्रीमद् भगवद् गीता’ में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछता हैः

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथी बलवद् दृढ़म् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।

‘हे श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा ही चंचल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बड़ा बलवान् है । इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ |’
(गीताः6.34)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

असंशयं महाबाहो मनो दुनिर्ग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।

‘हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है । परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास अर्थात् एकीभाव में नित्य स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से वश में होता है |’
(गीताः 6.35)

जो लोग केवल वैराग्य का ही सहारा लेते है, वे मानसिक उन्माद के शिकार हो जाते हैं । मान लो, संसार में किसी निकटवर्ती के माता-पिता या कुटुम्बी की मृत्यु हो गयी । गये श्मशान में तो आ गया वैराग्य... किसी घटना को देखकर हो गया वैराग्य... चले गये गंगा किनारे... वस्त्र, बिस्तर आदि कुछ भी पास न रखा... भिक्षा माँगकर खा ली फिर... फिर अभ्यास नहीं किया । ... तो ऐसे लोगों का वैराग्य एकदेशीय हो जाता है ।

अभ्यास के बिना वैराग्य परिपक्व नहीं होता है । अभ्यासरहित जो वैराग्य है वह ‘मैं त्यागी हूँ’ ... ऐसा भाव उत्पन्न कर दूसरों को तुच्छ दिखाने वाला एवं अहंकार सजाने वाला हो सकता है । ऐसा वैराग्य अंदर का आनंद न देने के कारण बोझरूप हो सकता है । इसीलिए भगवान कहते हैं-

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।

अभ्यास की बलिहारी है क्योंकि मनुष्य जिस विषय का अभ्यास करता है, उसमें वह पारंगत हो जाता है । जैसे – साईकिल, मोटर आदि चलाने का अभ्यास है, पैसे सैट करने का अभ्यास है वैसे ही आत्म-अनात्म का विचार करके, मन की चंचल दशा को नियंत्रित करने का अभ्यास हो जाए तो मनुष्य सर्वोपरि सिद्धिरूप आत्मज्ञान को पा लेता है ।

साधक अलग-अलग मार्ग के होते हैं । कोई ज्ञानमार्गी होता है, कोई भक्तिमार्गी होता है, कोई कर्ममार्गी होता है तो कोई योगमार्गी होता है । सेवा में अगर निष्कामता हो अर्थात् वाहवाही की आकांक्षा न हो एवं सच्चे दिल से, परिश्रम से अपनी योग्यता ईश्वर के कार्य में लगा दे तो यह हो गया निष्काम कर्मयोग ।

निष्काम कर्मयोग में कहीं सकामता न आ जाये – इसके लिए सावधान रहे और कार्य करते-करते भी बार-बार अभ्यास करे किः ‘शरीर मेरा नहीं, पाँच भूतों का है । वस्तुएँ मेरी नहीं, ये मेरे से पहले भी थीं और मैं मरूँगा तब भी यहीं रहेंगी... जिसका सर्वस्व है उसको रिझाने के लिए मैं काम करता हूँ...’ ऐसा करने से सेवा करते-करते भी साधक का मन निर्वासिक सुख का एहसास कर सकता है ।

भक्तिमार्गी साधक भक्ति करते-करते ऐसा अभ्यास करे किः ‘अनंत ब्रह्माण्डनायक भगवान मेरे अपने हैं । मैं भगवान का हूँ तो आवश्यकता मेरी कैसी? मेरी आवश्यकता भी भगवान की आवश्यकता है, मेरा शरीर भी भगवान का शरीर है, मेरा घर भगवान का घर है, मेरा बेटा भगवान का बेटा है, मेरी बेटी भगवान की बेटी है, मेरी इज्जत भगवान की इज्जत है तो मुझे चिन्ता किस बात की?’ ऐसा अभ्यास करके भक्त निश्चिंत हो सकता है ।
मरो मरो सबको कहे,मरना न जाने कोई.....
एक बार ऐसा मरो ,फिर मरना न होए...........

"आज मजा आया.....आज उसकी बंदगी करने में मजा आ गया,आहहहा !!!!!!!!! रोज ऐसी मजा आया करे.........पर रोज ऐसे नहीं होता है......
जिस समय सुषुम्ना नाडी का द्वार खुल्ला होगा तब ही ऐसी मजा आयेगी.........बुधि में सत्वगुण हो जिस समय तब ही ऐसा मजा आयेगा.......
ये मजा आना और न आना ये आत्मा का स्वाभाव है......बस कम तमाम हो जाये इससे पहले उसको पालो............काम बन जाएगा.......
फिर ये मजा प्रतिदिन की हो जाएगी...........

निश्वासे नहीं विश्वास:
इस स्वाश की कोई गारंटी नहीं है........एक एक करके काम हो रहा है................उसको सही इस्तेमाल में लाओ.......

अहमदाबाद वाले कहेंगे की मुंबई में सुख है...मुंबई वाले कहेंगे की कोलकत्ता में सुख है........कोलकत्ता वाले कहेंगे की कश्मीर में सुख है.........
कश्मीर वाले कहेंगे की लग्न में सुख है........लग्न वाले कहेंगे की बल-बच्चो में सुख है ......
बल-बचे वाले कहेंगे की निवृति में सुख है.......फिर कहेंगे आखिर में की मरने में सुख है.........
ये एक की नहीं सबकी समस्या है......................
आखिर में कुछ हाथ नहीं लगने वाला ................खली रहे जाओगे..........

भूतकाल से बोध लेकर,वर्तमान में जिओ..........भविष्य की चिंता मत करो............कल क्या होगा?
क्या कहेंगे कल? अरे .......एक पंखी भी आनेवाले कल की नहीं सोचता की कल "डिन्नर" में क्या होगा?......
वो आराम-मस्ती से अपने गोसले में पलता है...........
प्रारब्ध वादी मत बनो.........पुरुषार्थ करे पर चिंतित होके नहीं...........

"मुर्दे को प्रभु देत है.......कपडा लकड़ा आग.......
जिन्दा नर चिंता करे ,उसके बड़े अभाग....."

अरे संसार के सभी दोस्त,कुटुंब के लोग आपको एक दिन कहेंगे की........
"यारो..!!!!हम बेवफाई करेंगे....................
तुम पैदल होंगे ,हम कंधे चलेंगे...."

सो,समय का अधिकतम सदुपयोग करले और जीवन को आनंदित-प्रफुल्लित बनाये..............
"""संसार तेरा घर नहीं, दो चार दिन रहेना यहाँ..................
कर याद अपने राज्य की,स्वराज्य निष्कंटक जहा............"""

हरी ॐ ....हरी ॐ......हरी ॐ...........