Wednesday, July 21, 2010

भजन : छवि तेरी प्रगट होती

मेरी गिनती मेरी विनती, तुम्ही से ही शुरू होती
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

सुखी जीवन के तुम आधार, सदा करते हो भाव से पार
चरण धूलि जो आँखों में, लगा लूँ तो बने ज्योति
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

गुरुवर आपने अपने ह्रदय में, एक जगह दे दी
बड़ी किरपा की वरना तो, मेरी किस्मत ही थी सोती
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

करूँ चिंतन सदा तेरा, बने ऐसा ही मन मेरा
ह्रदय बन जाये गुरुद्वारा, वाणी हो जाये गंगोत्री
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

गुरुवर परम हितैषी हैं, यह वेदों ने बताया है
दिया “शुभ” आत्म का आनंद, किया कंकड से मुझे मोती
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

रचना: अभिषेक मैत्रेय “शुभ”

Thursday, July 01, 2010

इस संसार में मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई पशु-पक्षी खतरनाक नही। मनुष्य की हानि जितनी मनुष्य के हाथों हुई है उतनी पशुओं के हाथों नही हुई हैं। कोई भी पशु-पक्षी इतना भयानक नही है जितना की मनुष्य भयानक है खूंखार है। कारण एक पशु सिर्फ़ एक पशु की ही बराबरी रखता है और मनुष्य अनेक पशु की बराबरी रखता है। इसीलिये मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी खतरनाक नही हैं। इसीलिये जितनी बंदिश मनुष्य के लिये रखनी पडती है उतनी किसी पशु-पक्षी के लिये नही रखनी पड़ती हैं। ये जो बम, बन्दूक, तोप, टैंक, परमाणु बम बनाये गये है ये किसी पशु-पक्षी को मारने के लिये नही बनाये गये हैं, ये मनुष्य को मारने के लिये ही हैं। क्योकि जैसे-जैसे मनुष्य खतरनाक होता गया हथियार भी खतरनाक होते गये। जब मनुष्य सहज और सरल जी रहा था। तब उसका सबसे बडा हथियार लाठी थी। जब उसकी शान्ति थोडी भंग हुई तो लाठी ने बरछे का रूप ले लिया। जो थोडा और शान्ति भंग हुई तो तीर-कमान बन गये। फिर बन्दूक आयी, फिर तोपें आई, फिर टैंक आये। अब आज मनुष्य इतना खतरनाक हो गया है कि उसको काबू में रखने के लिये हाईड्रोजन बम बन गये हैं। अनगिनत ऐसे उदाहरण मिलते है कि मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी पशु खतरनाक नही हैं। रात के समय तकरीबन-तकरीबन सारे बाजार बंद हो जाते हैं दुकानों में बडे-बडें ताले लग जाते हैं एक नही कई-कई ताले लगाये जाते हैं। दुकानदार से कोई पूछे कि जो तुने ये ५-१० ताले लगाये हैं वो किस लिये ? पशु से डर है, पक्षी से डर हैं, कीडीयों का डर है, मकोंडों का डर हैं, बैलों का डर हैं, आखिर तुझें किसका डर हैं ? तब वह एक ही जवाब देता है कि किसी पशु का डर नही है सिर्फ़ मनुष्य का ही डर हैं कही कुछ चुराकर न ले जाये। आदमी आदमी से जितना परेशान है उतना किसी से भी परेशान नही हैं। इससे इतना तो पता चलता है कि मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी खतरनाक नही हैं। किसी पशु में जब खूँखारीपना आता है तो वो ज्यादा से ज्यादा १-२-३ के ऊपर हमला करके उनको मौत के घाट उतारता हैं लेकिन जब मनुष्य में पशु वृत्तियाँ प्रधान रूप लेती हैं, जब खूँखारीपना आता है तो वो बस्ती की बस्तियाँ उजाड़ देता हैं। शहरों के शहर खाख में मिला देता हैं। कई बार तो देश के देश बरबाद कर देता हैं। मनुष्य के अन्दर इतनी पशु वृत्तियाँ पैदा हो गयी हैं। आज कल सुनने में आया है कि देश-विदेशों में चर्चा हो रही है कि पशुओं की नस्ले खत्म हो रही हैं इनको कैसे बचाया जाये उनका उपाय ढूँढा जा रहा हैं। कही ऐसा ना हो कि वो जानवर बिलकुल ही खत्म ना हो जायें, परन्तु मैं तो सोचता हूँ कि उन जानवरों की तो हमको जरुरत ही नही हैं। क्युँ जब मनुष्य ही जानवरों की तरह जीने लगा हैं तो फिर जानवरों की जरुरत ही नही हैं। जो मनुष्य शहरों को ही जंगल बना ले तो फिर जंगल की भी जरुरत नही हैं क्योंकि जंगलों के अन्दर भी पशु इतने नही लडते हैं जितने शहरों में मनुष्य में लडते हैं। घोसलों में भी पक्षी इतने नही लडते है जितने अपने घर के अन्दर मनुष्य ने क्लेश, अनर्थ मचाया हुआ हैं। लडाई-झगडे की अगर परकाष्ठा देखनी है तो मनुष्यों के बीच देखने को मिलती है, पशुओं की दुनियाँ में इतनी नही। पक्षीयों की दुनियाँ में इतनी नही।
मनुष्य चिडियाघर में जाता हैं पशु-पक्षीयों को देखने के लिये और वहाँ बहुत से पशु-पक्षीयों को देखता हैं, अगर वो कभी अपनी सूरत को अपनी अंतराआत्मा में ले जाये तो उसे पशुओं की अनेक वृत्तियाँ अपने अन्दर नजर आयेगी। आकार या स्वरूप से पशु अन्दर नही बैठे हैं परन्तु सूरत करके, संस्कार करके, स्वभाव करके ये सारे पशु मनुष्य के अन्दर बैठे हैं। कौन-कौन से पशु इनमें प्रमुख हैं
उदयान बसनम संसारं सन बन्दी स्वान, स्याल, खरें ।
ऐं मनुष्य जो तेरे संबन्धी है वो है स्वान माने कुत्ता, सियाल माने गीदड़ और खरे मतलब गधा। ये तेरे रिश्तेदार हैं
अब ये पढों तो आपको क्रोध आयेगा कि मनुष्य के सम्बन्धी कुत्ते, सियाल और गधे हैं। हकीकत ये है कि मनुष्य का असली संबधी या रिश्तेदार तो उसका स्वभाव ही होता है और उसके स्वभाव में ही ये तीनों बैठें है।
सियाल की बात करे तो उसके रोम रोम में आलस्य भरा पडा हैं और डर हैं। तो जो बन्दा आठों पहर डरा ही हुआ हैं कि मौत का डर है, मुझे लूट लेगा, मुझसे मेरा सब कुछ छीन लेगा, बिमारी का डर, मान-सम्मान का डर और आलसी हैं वो चाहता है कि वो कुछ ना करे लेकिन उसको सब कुछ मिल जायें फिर उसके लिये चाहे कुछ भी करना पडे झूठ, फरेब, एक दूसरे को लडायें कैसे भी करें लेकिन मुझे सब कुछ मिले ये वृत्ति जिसके अन्दर है वो मनुष्य होते हुए भी सियाल रूप है।
कबीरदास जी का कहना हैं कि
कहत कबीर राम गुण गाओं, आप न डरों औरों न डराओं ।
राम के गुण गाते-गाते मैं इस हालत में पहुँच गया कि न किसी से डरता हूँ और ना किसी को डराता हूँ।
गुरु तेगबहादुर जी कहते हैं कि
भय काहू को देत है, न भय मानत को आन, कह नानक सुन रे मना, ज्ञानी ते बखान
मनुष्य के अन्दर कुत्ता भी हैं, कुत्ते की फितरत क्या हैं ? कि कुत्ता कुत्ते को पसन्द नही करता हैं। कुत्ता कुत्ते पर भोंकता हैं। कुत्ता कुत्ते पर टूट पडता हैं। हम देख रहे है कि कुत्ता कुत्ते का बैरी है। पर जो मनुष्य भी मनुष्य का बैरी होये तो, जब मनुष्य को मनुष्य ही अच्छे न लगें और मनुष्य मनुष्यों पर ही आवाजें करें तो मनुष्य और कुत्ते में क्या फर्क रह गया। ये वृत्ति कूकर वृत्ति हैं जो आज के मनुष्य में विशेष रूप में दिख रही हैं और आज एक बात और आश्चर्य की है कि मनुष्य मनुष्य को अपने पास बैठाने से कतराता हैं लेकिन कुत्ते को अपनी गोद में बडे प्यार से बैठाता है अपने साथ सुलाता है और अपने साथ घुमाता भी हैं। ऐसा क्युँ हैं लगता है कि अन्दर भी स्वभाव कुत्ते का और बाहर भी कुत्ते का संग दोनो का साथ हो गया हैं। वरना अगर मनुष्य के अन्दर मनुष्यता होती तो उसको मनुष्य के साथ भी प्यार होना चाहिये था, उसके साथ भी सहानुभूति होनी चाहिये थी, लेकिन नही है इससे साफ़ जाहिर होता है कि मनुष्य के अन्दर पशु वृतियाँ बहुत बढ़ गयी हैं। मनुष्य मनुष्य को गलत बोले, मनुष्य मनुष्य को बिना सोचे समझे दोष लगाये वह भी कूकर वृति हैं और मनुष्य मनुष्य को जख्मी कर जाये तो वो भी कूकर वृति हैं।
एक बार एक गरीब लकडहारा लकडी काट कर बाजार गया तो उसको रास्ते में एक कुत्ते ने काट लिया जब वह घर आया तो उसकी बच्ची ने कुत्ते के काटे का जख्म देख कर रोना शुरु कर दिया और पूछा कि अब्बा ! यह क्या हुआ तो उसने बोला कि बेटा कुत्ते ने काट लिया तो उसकी बेटी ने कहा कि जब उसने काटा तो फिर आपने उसको क्यों नही काटा क्या आपके पास तेज दाँत नही हैं। तब उसका पिता बोला कि बेटा ये काम तो कुत्ते का हैं किसी मनुष्य का नही अगर मनुष्य भी यह काम करने लगा तो फिर मनुष्य और कुत्ते में क्या फ़र्क रह जायेगा।
लेकिन आज यह अक्सर देखा गया हैं कि कोई किसी पर बिना किसी बात के चिल्लाता हैं, बिना सोचे समझे दोष लगाता हैं, उसे नफ़रत भरी निगाहों से देखता हैं और दूसरों को भी यह करने को बोलता है यह सब कूकर वृत्ति हैं
मनुष्य के अन्दर गधा भी हैं। गधा भारत के अन्दर बवकूफ़ का चिन्ह माना जाता हैं। ये धोबी का गधा या कुम्हार का गधा ये गधे असली गधे नही है असली गधा तो कोई और हैं। इस पर नानक जी कहते हैं।
नानक ते नर असल खर, जो बिन गुण गर्व करें
बिना गुण के आठों पहर मान को लिये जो नर फूला रहता हैं अहंकार को लिये फूला रहता है नानक जी उसके लिये कहते है कि वो असल में गधा हैं। क्योंकि इसको पता ही नही है कि तेरे आसरे पर जग नही खडा है बल्कि तु खुद किसी के आसरे पर खडा हैं। तू कृत है कर्ता नही । पर मनुष्य ने अहंकार की इतनी वृद्धि कर ली है कि उसका कोई मुआवजा ही नही हैं। ये गधे की वृत्ति हैं।
कबीरदास जी कहते है कि मनुष्य के अन्दर भैसे की भी वृत्ति भी होती है। भैसे की वृत्ति ये होती है कि वो अमोड चलता है मतलब कि उसको किसी दिशा में मोडों तो मुडता नही। वो अपनी धुन पर चलता हैं। वो अपनी ही चाल पर चलता है फिर चाहे वो चाल गलत हो या मार्ग गलत हो पर वो रुकता नही है कोई उसको रोके पर वो रुकता नही। ये देखा गया है कि जब किसी मनुष्य को २-४ लोग समझा रहे हो कि यह गलत है शास्त्र, गुरु या महापुरुष इसकी इजाजत नही देते, समाज भी इसको ठीक नजर से नही देखता हैं। तो भी वो मनुष्य उनकी नही सुनता है और इस पर तर्क करता है कि तुम कौन होते हो मुझे बताने वाले या समझाने वाले, मैं तो जिस रास्ते चलुंगा जैसी मेरी मर्जी, तो कबीरदास जी कहते हैं कि ये भैसे की वृत्ति हैं। कि समझाने पर भी न समझना, मोडने पर भी न मुडना, और अपनी हठधर्मी कायम रखनी और उस हठधर्मी के मुताबिक चलते जाना ये भैसे की वृत्ति हैं। गलती पे गलती करते जाना, कोई रोके तो रुके ना कबीरदास जी कहते है कि ये अमोड वृत्ति भैसा हैं।
माता भैसा अमुआ जाये, कुद कुद चरे रसातल पाये
धर्म का जन्म, ज्ञान का जन्म महापुरुषों का आगमन इस वास्ते हुआ कि मनुष्य अपने अन्दर हो रही इन पशु वृत्तियों को समाप्त करे जो उसको बेचैन कर रही हैं जो उसको दुखी कर रही हैं और सादा और सरल जीवन बनाये और ये विदा होंगे प्रभु चिन्तन से, सत्संग से, जो मनुष्य महापुरुषों की बात नही मानेगा तो उसके अन्दर की ये वृत्तियाँ बढती ही जायेंगी। साधू-संतों के बिना या प्रभु भजन के बिना जीना तो ऐसा जीना है जैसे साँप जीता है। साँप का काम क्या हैं वो खाता है पीता है तो खाते-पीते उसके अन्दर जहर बनता हैं जब जहर भर जाता है तो वह डंक मारता हैं। जहर को किसी के शरीर के अन्दर प्रविष्ट कर देता है। ऐसा ही नही कि साँप डंक मारते हैं, मनुष्य भी डंक मारते है। हो सकता है कि साँप का डसा हुआ कोई बच भी जाये परन्तु मनुष्य के डंक से तो कोई बचता ही नही, मनुष्य इस तरह का जहरीला है।
बिन सिमरन जैसे सर्प अरजारी, त्यु साखत जीवे नाम बिसारी ।
बिन सिमरन डिग कर्म करास, काक बटन विष्टा में वास ॥
गुरुओं का ऐसा भी वचन है कि मनुष्य के अन्दर कौवा भी है। किस तरह पता चलेगा कि मनुष्य के अन्दर काक वृत्ति है। कौवे के मुंह में सुगन्ध नही होती कपूर नही होता, दुर्गंध ही होती हैं विष्टा होती है, हड्डी का टुकडा होता हैं। दुर्गंध उसके मुह में होगी। कौवे की बोली बडी प्रखर हैं। बडी सख्त हैं। जो बन्दा बहुत सख्त बोले, कडुवा बोले, गंदा बोले, गालियाँ ही उसके मुह पर होवे, चार गालियाँ बोल कर ही बात शुरु करता हो तो साहिबो का कहना है कि ये कौवे वाली वृत्ति हैं। बडा कडक बोलता है, बडी कसक है इसकी बोली में, बडी चोट है, फिर बोलना बडा गंदा है तो मुह में इस गन्दगी का होना ये कौए की निशानी है। जिस समय मनुष्य के अन्दर कौवे की वृत्ति प्रधान होती है उसके मुह में गन्दगी आ जाती हैं।
बिन सिमरन डिग कर्म करास, काक बटन विष्टा में वास, बिन सिमरन गर्भक की नाई, सापध थाउ भ्रष्ट फिराई।
सिमरन को छोड़ कर जीव ऐसे जीता है जैसे कुत्ता, अब जो साहिब जी बताते है वो सबसे याद रखने वाली बात है
हर के नाम बिना है सुन्दर है नकटी, ज्यु वेश्वा के घर पूत जमत है तिस नाम परयों है प्रगटी।
वेश्या का पुत्र अपना नाम नही बोल सकता है किसी महफिल के वीच उसके पिता का नाम उसको पूछो तो वो बेचारा क्या बोलेगा क्योकि वेश्या का पुत्र हैं। इसलिये महफिल उसको शर्मसार करती है। गुरु अर्जुन देव जी महाराज का कहना है कि वेश्या के पुत्र को शर्मसार मत करों। वो सिर्फ अपने शरीर के पिता को नही जानता कि कौन है? और वेश्या का पुत्र नही हैं। वास्तव में वेश्या का पुत्र वो है जो जगतपिता को नही जानता जिसको जगत पिता का बोध नही हैं। जिसने इसकी माँ को भी पैदा किया, इसके पिता को भी पैदा किया और इसको भी पैदा किया है जिसको उसका बोध नही हैं वो वास्तविक में वेश्या का पुत्र हैं। ये इल्जाम इसलिये है न कि उस वास्ते कि वो वेश्या का पुत्र हैं। कारण ये है कि जिस समय मनुष्य नाम से टूटता हैं उसी समय अनगिनत पशु वृत्तियाँ उसके अन्दर जाग्रत हो जाती हैं और मनुष्य बहुत खतरनाक हो जाता हैं। जब खतरनाक हो जाता है तो फिर इस पर बंदिशें भी लगानी पड़ती हैं।
भाई गुरुदास जी कहते हैं कि मनुष्य को जीने का ढंग कीडी से सीखनी चाहियें। क्योकि जितने तेरे अन्दर अवगुण है उतने ही गुण भी हैं कीडीयों में एक खूबी होती है कि एक चोटी सी जगह में भी बहुत सारी एक साथ रहती है और प्यार के साथ में रहती है लेकिन मनुष्य बडे घर में दो परिवारों के साथ नही रह सकता हैं कीडी का आकार बहुत छोटा हैं लेकिन दिल बहुत बडा हैं। लेकिन मनुष्य का आकार बहुत बडा है पर दिल बहुत छोटा हैं। कीडी में एक और खूबी हैं कि घी शक्कर की खुशबू उसको आ जाये तो वो चल पडती है अकेले नही सभी को साथ लेकर, दाना मुह में लेकर आती है एक जगह पर रखती है और फिर दूसरा लेने जाती है क्योकि उसको विश्वास हैं कि जो दाना मैं रख कर गयी हूँ वो मुझे मिलेगा। पर मनुष्य की दुनिया में ये विश्वास नही हैं। अगर कोई चीज बाहर रख जाये तो उसको वो वापस मिलेगी कि नही उसको विश्वास नही हैं। मिल कर रहने की जो भावना कीडीयों के अन्दर है उतनी मनुष्य के अन्दर नही हैं।
इसलिये भाई गुरुदास जी कहते है कि हे मनुष्य तू प्रभु चिन्तन कर ताकि अपने अन्दर के पशुओं को तू बाहर निकाल सकें जिस दिन ये सारे पशु तेरे अन्दर से विदा हो जायेंगे उस दिन मनुष्यता निखर जायेगी। उस दिन वो जो प्रार्थना करता है तो उसके अन्दर देवत्व झलकता है। उसके अन्दर परमात्मा झलकता हैं, उसके अन्दर ईश्वर झलकता हैं। वो मनुष्य होते हुए ईश्वर की ज्योत प्रकट कर लेता हैं।
नामे नारायण नही भेद राम कबीरे भेद न पावे
मनुष्य दो जगत के बीच में है पशुओ का जगत और परमात्मा का जगत, पशुओ का जगत पीछें है और परमात्मा का जगत आगे हैं। जब पशु जगत की इच्छा मनुष्य के अन्दर जगती है तो वो दुराचारी बन जाता हैं तब वो किसी भी नियम को नही मानता परन्तु उसके अन्दर इच्छा उस प्रभु की भी हैं जो शिखर पर हैं। पशुओ का जगत नीचे है और प्रभु का जगत ऊपर हैं। मनुष्य इन दोनों के बीच में खडा हैं। कभी प्रभु की ओर खिचता है तो धर्म-मन्दिरों का रुख करता हैं। धर्म-ग्रन्थों का पाठ-पठन करता हैं। सतपुरुषों के बीच बैठता हैं और बैठकर आनंद मानता हैं। जब आनंद मना ही रहा होता है तो पशुओं के जगत का खिचाव शुरु हो जाता है क्योंकि राग-द्वेश-अहंकार उसके अन्दर आ जाते है फिर वो नीचे गिर जाता हैं। इसी तरह कभी ऊपर कभी तो कभी नीचे होता रहता है कारण कि पशुओं के जगत का अपना खिचाव है और प्रभु के जगत का अपना खिचाव हैं। सत्संग और साधना में बहुत ज्यादा जोर इसलिये दिया जाता है कि मनुष्य इस पशुओं के जगत के खिचाव से बच कर प्रभु के जगत के ओर पहुँच जाये और लीनता भी उसको इस तरह मिल जाये कि " नानक लीन भयों गोविन्द ज्यु पानी संग पानी " सरिता रेगिस्तान में भी खो सकती है और सरिता सागर में भी खो सकती हैं। सरिता अगर रेगिस्तान में खो गयी तो अपना वजूद मिटा देगी और अगर सागर में खोई तो सागर का रूप बन जायेगी। ऐसे ही मनुष्य अगर पशुओं के जगत में खो गया तो अपनी मनुष्यता खो बैठेगा और अगर परमात्मा में लीन हो गया तो परमात्मा का ही रूप हो जायेगा, ईश्वर का ही रूप हो जायेगा। और ईश्वर का रूप होने ही मनुष्य इस जगत में आया हैं।
ईश्वर को पाने के लिए, तत्त्वज्ञान पाने के लिए हमें प्रतीति से प्राप्ति में जाना पड़ेगा।

एक होती है प्रतीति और दूसरी होती है प्राप्ति। प्रतीति माने : देखने भर को जो प्राप्त हो वह है प्रतीति। जैसे गुलाब जामुन खाया। जिह्वा को स्वाद अच्छा लगा लेकिन कब तक ? जब तक गुलाब जामुन जीभ पर रहा तब तक । गले से नीचे उतरने पर वह पेट में खिचड़ी बन गया। सिनेमा में कोई दृश्य बड़ा अच्छा लगा आँखों को। ट्रेन या बस में बैठे पहाड़ियों के बीच से गुजर रहे हैं। संध्या का समय है। घना जंगल है। सूर्यास्त के इस मनोरम दृश्य को बादलों की घटा और अधिक मनोरम बना रही है। लेकिन कब तक ? जब तक आपको वह दृश्य दिखता रहा तब तक। आँखों से ओझल होने पर कुछ भी नहीं। सब प्रतीति मात्र था।

डिग्रियां मिल गई यह प्रतीति है। धन मिल गया, पद मिल गया, वैभव मिल गया यह भी प्रतीत है। मृत्यु का झटका आया कि सब मिला अमिला हो गया। रोज रात को नींद में सब मिला अमिला हो जाता है। तो यह सब मिला कुछ नहीं, मात्र धोखा है, धोखा। मुझे यह मिला.... मुझे वह मिला..... इस प्रकार सारी जिन्दगी जम्पींग करते-करते अंत में देखो तो कुछ नहीं मिला। जिसको मिला कहा वह शरीर भी जलाने को ले गये।

यह सब प्रतीति मात्र है, धोखा है। वास्तव में मिला कुछ नहीं।

दूसरी होती है प्राप्ति। प्राप्ति होती है परमात्मा की। वास्तव में मिलता तो है परमात्मा, बाकी जो कुछ भी मिलता है वह धोखा है।

परमात्मा तब मिलता है जब परमात्मा की प्रीति और परमात्म-प्राप्त, भगवत्प्राप्त महापुरुषों का सत्संग, सान्निध्य मिलता है। उससे शाश्वत परमात्मा की प्राप्ति होती है और बाकी सब प्रतीति है। चाहे कितनी भी प्रतीति हो जाये आखिर कुछ नहीं। ऊँचे ऊँचे पदों पर पहुँच गये, विश्व का राज्य मिल गया लेकिन आँख बन्द हुई तो सब समाप्त।

प्रतीति में आसक्त न हो और प्राप्ति में टिक जाओ तो जीते जी मुक्त हो।

प्रतीति मात्र में लोग उलझ जाते हैं परमात्मा के सिवाय जो कुछ भी मिलता है वह धोखा है। वास्तविक प्राप्ति होती है सत्संग से, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के संग से।

महावीर के जीवन में भी जो प्रतीति का प्रकाश हुआ वह तो कुछ धोखा था। वे इस हकीकत को जान गये। घरवालों के आग्रह से घर में रह रहे थे लेकिन घर में होते हुए भी वे अपनी आत्मा में चले जाते थे। आखिर घरवालों ने कहा कि तुम घर में रहो या बाहर, कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर एकान्त में चले गये। प्रतीति से मुख मोड़कर प्राप्ति में चले गये।
ईश्वरीय विधान में हम जितना अडिग रहते हैं उतनी ही प्रकृति अनुकूल हो जाती है। ईश्वरीय विधान में कम अडिग रहते है तो प्रकृति कम अनुकूल रहती है और ईश्वरीय विधान का उल्लंघन करते हैं तो प्रकृति हमें डण्डे मारती है।

जब-जब दुःख आ जाय, चिन्ता आ जाय, शोक आ जाय, भय आ जाय तो उस समय इतना तो जरूर समझ लें कि हमने ईश्वरीय विधान का कोई-न-कोई अनादर किया है। ईश्वर अपमान कराके हमें समतावान बनाना चाहते हैं और हम अपमान पसन्द नहीं करते हैं। यह ईश्वर का अनादर है। ईश्वर हमें मित्र देकर उत्साहित करना चाहते हैं लेकिन हम मित्रों की ममता में फँसते हैं इसलिए दुःख होता है। ईश्वर हमें धन देकर सत्कर्म कराना चाहते हैं लेकिन हम धन को पकड़ रखना चाहते हैं इसलिए 'टेन्शन' (तनाव) बढ़ जाता है। ईश्वर हमें कुटुम्ब-परिवार देकर इस संसार की भूलभुलैया से जागृत होने को कह रहे हैं लेकिन हम खिलौनों से खेलने लग जाते हैं तो संसार की ओर से थप्पड़ें पड़ती हैं।

ईश्वरीय विधान हमारी तरक्की.... तरक्की.... और तरक्की ही चाहता है। जब थप्पड़ पड़ती है तब भी हेतु तरक्की का है। जब अनुकूलता मिलती है तब ईश्वरीय विधान का हेतु हमारी तरक्की का है। जैसे माँ डाँटती है तो भी बच्चे के हित के लिए और प्यार-पुचकार करती है तो भी उसमें बच्चे का हित ही निहित होता है। ईश्वरीय विधान के अनुसार हमारी गलती होती है तो माँ डाँटती है, गलती न हो इसलिए डाँटती है।

जैसे माँ का, बाप का व्यवहार बच्चे के प्रति होता है ऐसे ही ईश्वरीय विधान का व्यवहार हम लोगों के प्रति होता है। यहाँ के विधान बदल जाते हैं, नगरपालिकाओं के विधान बदल जाते हैं, सरकार के कानून बदल जाते हैं लेकिन ईश्वरीय विधान सब काल के लिए, सब लोगों के लिए एक समान रहता है। उसमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, अपना पराया नहीं है, साधु-असाधु नहीं है। ईश्वरीय विधान साधु के लिए भी है और असाधु के लिए भी है। साधु भी अगर ईश्वरीय विधान साधु के लिए भी है और असाधु के लिए भी है। साधु अगर ईश्वरीय विधान के अनुकूल चलते हैं तो उनका चित्त प्रसन्न होता है, उदात्त बनता है। अपने पूर्वाग्रह या दुराग्रह छोड़कर तन-मन-वचन से प्राणिमात्र का कल्याण चाहते हैं तो ईश्वरीय विधान उनके अन्तःकरण में दिव्यता भर देता है। वे स्वार्थकेन्द्रित हो जाते हैं तो उनका अन्तःकरण संकुचित कर देता है।
अनेक संतों, ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जन्म की बड़ी महिमा गायी है। भगवान श्रीराम ने भी कहाः बड़े भाग मानुष तन पावा। देवयोनियों में सिर्फ भोग-सामग्रियाँ हैं। पशुयोनियों में दुःख और मूढ़ता है। एक मनुष्ययोनि ही ऐसी है, जिसमें सब दुःखों से सदा के लिए छुटकारा पाने का अवसर मिलता है।

सारे दुःखों का मूल कारण आत्म-अज्ञान है। इस अज्ञान को मिटाने के लिए आत्मविचार करो। स्वयं से बार बार पूछो कि 'मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? और कहाँ जाना है ?' इस प्रकार आत्मचिंतन करते-करते अज्ञान कम होने लगेगा और आपका वास्तविक सुख प्रकट होने लगेगा।

जगत के पदार्थों की तृष्णा मत करो। तृष्णा का पेट बहुत बड़ा होता है, वह कभी नहीं भरता। तृष्णा को संतोष से मिटाओ। यथाप्राप्त में संतोष और ईश्वरप्राप्ति की इच्छा यह परम कल्याण का मार्ग है। जैसे आकाश प्रत्येक स्थान पर है, ऐसे ही ईश्वर सर्वत्र है. उसकी अपार शक्ति हर जगह भरपूर है। आवश्यकता है ऐसी दृष्टि की जो उसे पहचान सके। संत नामदेव ने कुत्ते में भगवान का दर्शन किया। उसे घी और रोटी खिलायी। चित्त की सब इच्छाएँ भगवान को अर्पित कर दो। जब घोड़े पर सवार हो गये तो फिर इच्छारूपी बोझा अपने सिर पर क्यों रहने देते हो ? निर्वासनिक होकर सत्कर्म करो। ऐसा करने पर परमात्मा स्वयं तुम्हारे पास दौड़ता हुआ आयेगा।

प्रतिदिन रात को सोने से पहले और सुबह उठते ही भगवान से प्रार्थना करो। भगवन्नाम का जप करो। जो भगवान से प्रेम करता है, उसके लिए भगवान भी कष्ट सहन करते हैं। जिसकी भगवान में प्रीति है वह उनके उस धाम में पहुँचेगा, जहाँ पहुँचने पर फिर से जन्म-मृत्यु के महादुःख को नहीं सहना पड़ता।

भगवान का स्मरण करते हुए प्रतिदिन अपने व्यवहार में सुधार, पवित्रता और विवेक को बढ़ाओ। आहार, निद्रा, भोग आदि में मनुष्य और पशु में समानता है। उन्हें संयोग और वियोग पर होने वाले सुख-दुःख की अवस्था भी दोनों में है। फिर भी मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है, ऐसा क्यों ? क्योंकि उसमें एक ऐसी विशेष शक्ति है जो किसी भी दूसरे प्राणी में नहीं है। वह है विवेकशक्ति। इसके प्रभाव से मनुष्य यह जान सकता है कि सत्य क्या है ? मैं कौन हूँ ? ....परंतु यदि मनुष्य इस विवेकशक्ति का आदर नहीं करता और भोगों में ही अपने जीवन को समाप्त कर देता है तो फिर उसमें और पशु पक्षियों में कोई विशेष अंतर नहीं है। उसकी शारीरिक रचना भले भिन्न हो फिर भी वह पशु ही है।

जिसके पास विवेक नहीं है वह कभी भी पूर्ण सफल और सुखी नहीं हो सकता। सत्-असत् को पहचान कर सत् को अपनाओ। मैं देह हूँ.... संसार की वस्तुएँ मेरी हैं....यह विचार असत् है। इस मिथ्या अभिमान से सत् में स्थिति नहीं होगी। कैसी भी चिंता न करो क्योंकि चिंता चिता से बढ़कर है। चिता तो मुर्दे को जलाती है परंतु चिंता जीवित मनुष्य को ही भस्म कर देती है।

भगवान का नाम जपने से मंगल होता है क्योंकि भगवान मंगलस्वरूप हैं। जैसी प्रीति संसार के नश्वर पदार्थों में रखते हो, ऐसी यदि शाश्वत परमात्मा में रखोगे तो संसारसागर को सुगमता से पार कर लोगे। गृहस्थाश्रम में नीति व मर्यादा के मार्ग पर चलने से सुख प्राप्त होता है।

साधक को चाहिए कि वह अपने विवेक का आधार लेकर यह बात समझे कि उसे मनुष्य शरीर क्यों मिला है और उसका सदुपयोग कैसे किया जाय ? यदि विवेक को आगे रखकर संसार में रहोगे तो संसार में जो सार वस्तु है उस परमानंदस्वरूप परमात्मा को, वास्तविक सुख को पाने में सफल हो जाओगे।