Wednesday, November 10, 2010


सात दुर्लभ प्रश्न और उनके दुर्लभ उत्तर ! सबसे बड़ा दुख ! सबसे बड़ा सुख ! सबसे दुर्लभ शरीर ! सबसे बड़ा पुण्य ! सबसे बड़ा पाप ! संत-असंत का भेद और मानस रोग !
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥1॥
पक्षीराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए॥1॥

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥2॥
हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिए॥2॥

संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला॥3॥

संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए। फिर कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान्‌ पुण्य कौन सा है और सबसे महान्‌ भयंकर पाप कौन है॥3॥

मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती॥4॥
फिर मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है। (काकभुशुण्डिजी ने कहा-) हे तात अत्यंत आदर और प्रेम के साथ सुनिए। मैं यह नीति संक्षेप से कहता हूँ॥4॥

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥5॥
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥6॥
ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं॥6॥

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥7॥

दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत्‌ में सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है॥7॥

संत सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥8॥

संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए। कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)॥8॥

सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाई बिपति सहि मरई॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥9॥
किंतु दुष्ट लोग सन की भाँति दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें बाँधने के लिए) अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं॥9॥

पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥10॥
वे पराई संपत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भाँति जगत के दुःख के लिए ही होता है॥10॥

संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा॥11॥

और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चंद्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है। वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है॥11॥

हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि॥12॥

शंकरजी और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत्‌ में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है॥12॥

सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥13॥

जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है॥13॥

सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥14॥

जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं॥14॥

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥

सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥15॥

प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥16॥

यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात्‌ वे अपार हैं)॥16॥

चौपाई :
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥
ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है॥17॥

अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥
अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥18॥

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥19॥
मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ॥19॥

दोहा :
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121 क॥
एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥121 (क)॥

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥121 ख॥
नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते॥121 (ख)॥

चौपाई :
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥1॥
इस प्रकार जगत्‌ में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं। मैंने ये थो़ड़े से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही॥1॥

जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥2॥
प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषय रूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं॥2॥

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥3॥
यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥3॥

चौपाई :
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥
श्री रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते॥4॥

जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥5॥
हे गोसाईं! मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आशा रूपी दुर्बलता मिट जाए॥5॥

बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥6॥
इस प्रकार सब रोगों से छूटकर जब मनुष्य निर्मल ज्ञान रूपी जल में स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है। शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचार में परम निपुण जो मुनि हैं,॥6॥

सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा॥
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥7॥
हे पक्षीराज! उन सबका मत यही है कि श्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम करना चाहिए। श्रुति, पुराण और सभी ग्रंथ कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की भक्ति के बिना सुख नहीं है॥7॥

कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥8॥
कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आवें, बाँझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाश में भले ही अनेकों प्रकार के फूल खिल उठें, परंतु श्री हरि से विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता॥8॥

तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना॥
अंधकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै॥9॥
मृगतृष्णा के जल को पीने से भले ही प्यास बुझ जाए, खरगोश के सिर पर भले ही सींग निकल आवे, अन्धकार भले ही सूर्य का नाश कर दे, परंतु श्री राम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता॥9॥

हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥10॥
बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाए (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जाएँ), परंतु श्री राम से विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता॥10॥

दोहा :
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न तव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥122 क॥
जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल निकल आवे, परंतु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धांत अटल है॥122 (क)॥

मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥122 ख॥
प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचार कर चतुर पुरुष सब संदेह त्यागकर श्री रामजी को ही भजते हैं॥122 (ख)॥

श्लोक :
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥122 ग॥
मैं आपसे भली-भाँति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूँ- मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्री हरि का भजन करते हैं, वे अत्यंत दुस्तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर जाते हैं॥122 (ग)॥

चौपाई :
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा॥
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी॥1॥
हे नाथ! मैंने श्री हरि का अनुपम चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप से कहा। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी ! श्रुतियों का यही सिद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥1॥
राजा चंद्रसेन एक न्यायप्रिय शासक था। वह कभी किसी के साथ अन्याय नहीं होने देता था। एक बार पड़ोसी राजा ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया।चंद्रसेन स्वयं पड़ोसी राजा से भिड़ गया। थोड़ी ही देर में चंद्रसेन ने उसे जमीन पर गिरा दिया और उसके सिर पर तलवार का वार करने ही वाला था कि दूसरे राजा के मुंह से कुछ अपशब्द निकल गए। अपशब्द सुनकर चंद्रसेन ने अपनी तलवार रोक ली और कुछ सोचते हुए उसे म्यान में रख लिया। वहां उपस्थित सभी सैनिक आश्चर्य में पड़ गए।
वे चंद्रसेन से बोले, 'आपने अपना हाथ क्यों रोक लिया। इसे मार डालिए। इसे जिंदा छोड़ना ठीक नहीं होगा।'सैनिकों की बात सुनकर चंद्रसेन ने कहा, 'मैं युद्ध अपने देश की रक्षा के लिए लड़ रहा हूं। यदि मैं इसी समय इसे मार देता हूं तो मुझे अफसोस नहीं होगा मगर इसने मुझे अपशब्द कहे, जिसके कारण मेरी लड़ाई हमारे राष्ट्र की न होकर व्यक्तिगत हो गई। देश रक्षा के लिए मैं अपने पूरे युद्ध कौशल से लड़ रहा था, किंतु व्यक्तिगत होने पर मैं गुस्से में आ गया। यदि मैं इसे मार देता तो मैं स्वार्थी कहलाता।' इतना कहकर चंद्रसेन ने दूसरे राजा को तलवार दी और युद्ध करने को कहा। लेकिन उस राजा ने लड़ने से इनकार कर दिया और उसके आगे सिर झुकाकर कहा, 'आपने अपने उच्च विचारों से मुझे जीत लिया है। अब आप चाहे तो मुझे मार दें।' चंद्रसेन ने उस पर वार नहीं किया और उसे क्षमा कर दिया। वह राजा सेना सहित लौट गया।

Wednesday, July 21, 2010

भजन : छवि तेरी प्रगट होती

मेरी गिनती मेरी विनती, तुम्ही से ही शुरू होती
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

सुखी जीवन के तुम आधार, सदा करते हो भाव से पार
चरण धूलि जो आँखों में, लगा लूँ तो बने ज्योति
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

गुरुवर आपने अपने ह्रदय में, एक जगह दे दी
बड़ी किरपा की वरना तो, मेरी किस्मत ही थी सोती
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

करूँ चिंतन सदा तेरा, बने ऐसा ही मन मेरा
ह्रदय बन जाये गुरुद्वारा, वाणी हो जाये गंगोत्री
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

गुरुवर परम हितैषी हैं, यह वेदों ने बताया है
दिया “शुभ” आत्म का आनंद, किया कंकड से मुझे मोती
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

रचना: अभिषेक मैत्रेय “शुभ”

Thursday, July 01, 2010

इस संसार में मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई पशु-पक्षी खतरनाक नही। मनुष्य की हानि जितनी मनुष्य के हाथों हुई है उतनी पशुओं के हाथों नही हुई हैं। कोई भी पशु-पक्षी इतना भयानक नही है जितना की मनुष्य भयानक है खूंखार है। कारण एक पशु सिर्फ़ एक पशु की ही बराबरी रखता है और मनुष्य अनेक पशु की बराबरी रखता है। इसीलिये मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी खतरनाक नही हैं। इसीलिये जितनी बंदिश मनुष्य के लिये रखनी पडती है उतनी किसी पशु-पक्षी के लिये नही रखनी पड़ती हैं। ये जो बम, बन्दूक, तोप, टैंक, परमाणु बम बनाये गये है ये किसी पशु-पक्षी को मारने के लिये नही बनाये गये हैं, ये मनुष्य को मारने के लिये ही हैं। क्योकि जैसे-जैसे मनुष्य खतरनाक होता गया हथियार भी खतरनाक होते गये। जब मनुष्य सहज और सरल जी रहा था। तब उसका सबसे बडा हथियार लाठी थी। जब उसकी शान्ति थोडी भंग हुई तो लाठी ने बरछे का रूप ले लिया। जो थोडा और शान्ति भंग हुई तो तीर-कमान बन गये। फिर बन्दूक आयी, फिर तोपें आई, फिर टैंक आये। अब आज मनुष्य इतना खतरनाक हो गया है कि उसको काबू में रखने के लिये हाईड्रोजन बम बन गये हैं। अनगिनत ऐसे उदाहरण मिलते है कि मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी पशु खतरनाक नही हैं। रात के समय तकरीबन-तकरीबन सारे बाजार बंद हो जाते हैं दुकानों में बडे-बडें ताले लग जाते हैं एक नही कई-कई ताले लगाये जाते हैं। दुकानदार से कोई पूछे कि जो तुने ये ५-१० ताले लगाये हैं वो किस लिये ? पशु से डर है, पक्षी से डर हैं, कीडीयों का डर है, मकोंडों का डर हैं, बैलों का डर हैं, आखिर तुझें किसका डर हैं ? तब वह एक ही जवाब देता है कि किसी पशु का डर नही है सिर्फ़ मनुष्य का ही डर हैं कही कुछ चुराकर न ले जाये। आदमी आदमी से जितना परेशान है उतना किसी से भी परेशान नही हैं। इससे इतना तो पता चलता है कि मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी खतरनाक नही हैं। किसी पशु में जब खूँखारीपना आता है तो वो ज्यादा से ज्यादा १-२-३ के ऊपर हमला करके उनको मौत के घाट उतारता हैं लेकिन जब मनुष्य में पशु वृत्तियाँ प्रधान रूप लेती हैं, जब खूँखारीपना आता है तो वो बस्ती की बस्तियाँ उजाड़ देता हैं। शहरों के शहर खाख में मिला देता हैं। कई बार तो देश के देश बरबाद कर देता हैं। मनुष्य के अन्दर इतनी पशु वृत्तियाँ पैदा हो गयी हैं। आज कल सुनने में आया है कि देश-विदेशों में चर्चा हो रही है कि पशुओं की नस्ले खत्म हो रही हैं इनको कैसे बचाया जाये उनका उपाय ढूँढा जा रहा हैं। कही ऐसा ना हो कि वो जानवर बिलकुल ही खत्म ना हो जायें, परन्तु मैं तो सोचता हूँ कि उन जानवरों की तो हमको जरुरत ही नही हैं। क्युँ जब मनुष्य ही जानवरों की तरह जीने लगा हैं तो फिर जानवरों की जरुरत ही नही हैं। जो मनुष्य शहरों को ही जंगल बना ले तो फिर जंगल की भी जरुरत नही हैं क्योंकि जंगलों के अन्दर भी पशु इतने नही लडते हैं जितने शहरों में मनुष्य में लडते हैं। घोसलों में भी पक्षी इतने नही लडते है जितने अपने घर के अन्दर मनुष्य ने क्लेश, अनर्थ मचाया हुआ हैं। लडाई-झगडे की अगर परकाष्ठा देखनी है तो मनुष्यों के बीच देखने को मिलती है, पशुओं की दुनियाँ में इतनी नही। पक्षीयों की दुनियाँ में इतनी नही।
मनुष्य चिडियाघर में जाता हैं पशु-पक्षीयों को देखने के लिये और वहाँ बहुत से पशु-पक्षीयों को देखता हैं, अगर वो कभी अपनी सूरत को अपनी अंतराआत्मा में ले जाये तो उसे पशुओं की अनेक वृत्तियाँ अपने अन्दर नजर आयेगी। आकार या स्वरूप से पशु अन्दर नही बैठे हैं परन्तु सूरत करके, संस्कार करके, स्वभाव करके ये सारे पशु मनुष्य के अन्दर बैठे हैं। कौन-कौन से पशु इनमें प्रमुख हैं
उदयान बसनम संसारं सन बन्दी स्वान, स्याल, खरें ।
ऐं मनुष्य जो तेरे संबन्धी है वो है स्वान माने कुत्ता, सियाल माने गीदड़ और खरे मतलब गधा। ये तेरे रिश्तेदार हैं
अब ये पढों तो आपको क्रोध आयेगा कि मनुष्य के सम्बन्धी कुत्ते, सियाल और गधे हैं। हकीकत ये है कि मनुष्य का असली संबधी या रिश्तेदार तो उसका स्वभाव ही होता है और उसके स्वभाव में ही ये तीनों बैठें है।
सियाल की बात करे तो उसके रोम रोम में आलस्य भरा पडा हैं और डर हैं। तो जो बन्दा आठों पहर डरा ही हुआ हैं कि मौत का डर है, मुझे लूट लेगा, मुझसे मेरा सब कुछ छीन लेगा, बिमारी का डर, मान-सम्मान का डर और आलसी हैं वो चाहता है कि वो कुछ ना करे लेकिन उसको सब कुछ मिल जायें फिर उसके लिये चाहे कुछ भी करना पडे झूठ, फरेब, एक दूसरे को लडायें कैसे भी करें लेकिन मुझे सब कुछ मिले ये वृत्ति जिसके अन्दर है वो मनुष्य होते हुए भी सियाल रूप है।
कबीरदास जी का कहना हैं कि
कहत कबीर राम गुण गाओं, आप न डरों औरों न डराओं ।
राम के गुण गाते-गाते मैं इस हालत में पहुँच गया कि न किसी से डरता हूँ और ना किसी को डराता हूँ।
गुरु तेगबहादुर जी कहते हैं कि
भय काहू को देत है, न भय मानत को आन, कह नानक सुन रे मना, ज्ञानी ते बखान
मनुष्य के अन्दर कुत्ता भी हैं, कुत्ते की फितरत क्या हैं ? कि कुत्ता कुत्ते को पसन्द नही करता हैं। कुत्ता कुत्ते पर भोंकता हैं। कुत्ता कुत्ते पर टूट पडता हैं। हम देख रहे है कि कुत्ता कुत्ते का बैरी है। पर जो मनुष्य भी मनुष्य का बैरी होये तो, जब मनुष्य को मनुष्य ही अच्छे न लगें और मनुष्य मनुष्यों पर ही आवाजें करें तो मनुष्य और कुत्ते में क्या फर्क रह गया। ये वृत्ति कूकर वृत्ति हैं जो आज के मनुष्य में विशेष रूप में दिख रही हैं और आज एक बात और आश्चर्य की है कि मनुष्य मनुष्य को अपने पास बैठाने से कतराता हैं लेकिन कुत्ते को अपनी गोद में बडे प्यार से बैठाता है अपने साथ सुलाता है और अपने साथ घुमाता भी हैं। ऐसा क्युँ हैं लगता है कि अन्दर भी स्वभाव कुत्ते का और बाहर भी कुत्ते का संग दोनो का साथ हो गया हैं। वरना अगर मनुष्य के अन्दर मनुष्यता होती तो उसको मनुष्य के साथ भी प्यार होना चाहिये था, उसके साथ भी सहानुभूति होनी चाहिये थी, लेकिन नही है इससे साफ़ जाहिर होता है कि मनुष्य के अन्दर पशु वृतियाँ बहुत बढ़ गयी हैं। मनुष्य मनुष्य को गलत बोले, मनुष्य मनुष्य को बिना सोचे समझे दोष लगाये वह भी कूकर वृति हैं और मनुष्य मनुष्य को जख्मी कर जाये तो वो भी कूकर वृति हैं।
एक बार एक गरीब लकडहारा लकडी काट कर बाजार गया तो उसको रास्ते में एक कुत्ते ने काट लिया जब वह घर आया तो उसकी बच्ची ने कुत्ते के काटे का जख्म देख कर रोना शुरु कर दिया और पूछा कि अब्बा ! यह क्या हुआ तो उसने बोला कि बेटा कुत्ते ने काट लिया तो उसकी बेटी ने कहा कि जब उसने काटा तो फिर आपने उसको क्यों नही काटा क्या आपके पास तेज दाँत नही हैं। तब उसका पिता बोला कि बेटा ये काम तो कुत्ते का हैं किसी मनुष्य का नही अगर मनुष्य भी यह काम करने लगा तो फिर मनुष्य और कुत्ते में क्या फ़र्क रह जायेगा।
लेकिन आज यह अक्सर देखा गया हैं कि कोई किसी पर बिना किसी बात के चिल्लाता हैं, बिना सोचे समझे दोष लगाता हैं, उसे नफ़रत भरी निगाहों से देखता हैं और दूसरों को भी यह करने को बोलता है यह सब कूकर वृत्ति हैं
मनुष्य के अन्दर गधा भी हैं। गधा भारत के अन्दर बवकूफ़ का चिन्ह माना जाता हैं। ये धोबी का गधा या कुम्हार का गधा ये गधे असली गधे नही है असली गधा तो कोई और हैं। इस पर नानक जी कहते हैं।
नानक ते नर असल खर, जो बिन गुण गर्व करें
बिना गुण के आठों पहर मान को लिये जो नर फूला रहता हैं अहंकार को लिये फूला रहता है नानक जी उसके लिये कहते है कि वो असल में गधा हैं। क्योंकि इसको पता ही नही है कि तेरे आसरे पर जग नही खडा है बल्कि तु खुद किसी के आसरे पर खडा हैं। तू कृत है कर्ता नही । पर मनुष्य ने अहंकार की इतनी वृद्धि कर ली है कि उसका कोई मुआवजा ही नही हैं। ये गधे की वृत्ति हैं।
कबीरदास जी कहते है कि मनुष्य के अन्दर भैसे की भी वृत्ति भी होती है। भैसे की वृत्ति ये होती है कि वो अमोड चलता है मतलब कि उसको किसी दिशा में मोडों तो मुडता नही। वो अपनी धुन पर चलता हैं। वो अपनी ही चाल पर चलता है फिर चाहे वो चाल गलत हो या मार्ग गलत हो पर वो रुकता नही है कोई उसको रोके पर वो रुकता नही। ये देखा गया है कि जब किसी मनुष्य को २-४ लोग समझा रहे हो कि यह गलत है शास्त्र, गुरु या महापुरुष इसकी इजाजत नही देते, समाज भी इसको ठीक नजर से नही देखता हैं। तो भी वो मनुष्य उनकी नही सुनता है और इस पर तर्क करता है कि तुम कौन होते हो मुझे बताने वाले या समझाने वाले, मैं तो जिस रास्ते चलुंगा जैसी मेरी मर्जी, तो कबीरदास जी कहते हैं कि ये भैसे की वृत्ति हैं। कि समझाने पर भी न समझना, मोडने पर भी न मुडना, और अपनी हठधर्मी कायम रखनी और उस हठधर्मी के मुताबिक चलते जाना ये भैसे की वृत्ति हैं। गलती पे गलती करते जाना, कोई रोके तो रुके ना कबीरदास जी कहते है कि ये अमोड वृत्ति भैसा हैं।
माता भैसा अमुआ जाये, कुद कुद चरे रसातल पाये
धर्म का जन्म, ज्ञान का जन्म महापुरुषों का आगमन इस वास्ते हुआ कि मनुष्य अपने अन्दर हो रही इन पशु वृत्तियों को समाप्त करे जो उसको बेचैन कर रही हैं जो उसको दुखी कर रही हैं और सादा और सरल जीवन बनाये और ये विदा होंगे प्रभु चिन्तन से, सत्संग से, जो मनुष्य महापुरुषों की बात नही मानेगा तो उसके अन्दर की ये वृत्तियाँ बढती ही जायेंगी। साधू-संतों के बिना या प्रभु भजन के बिना जीना तो ऐसा जीना है जैसे साँप जीता है। साँप का काम क्या हैं वो खाता है पीता है तो खाते-पीते उसके अन्दर जहर बनता हैं जब जहर भर जाता है तो वह डंक मारता हैं। जहर को किसी के शरीर के अन्दर प्रविष्ट कर देता है। ऐसा ही नही कि साँप डंक मारते हैं, मनुष्य भी डंक मारते है। हो सकता है कि साँप का डसा हुआ कोई बच भी जाये परन्तु मनुष्य के डंक से तो कोई बचता ही नही, मनुष्य इस तरह का जहरीला है।
बिन सिमरन जैसे सर्प अरजारी, त्यु साखत जीवे नाम बिसारी ।
बिन सिमरन डिग कर्म करास, काक बटन विष्टा में वास ॥
गुरुओं का ऐसा भी वचन है कि मनुष्य के अन्दर कौवा भी है। किस तरह पता चलेगा कि मनुष्य के अन्दर काक वृत्ति है। कौवे के मुंह में सुगन्ध नही होती कपूर नही होता, दुर्गंध ही होती हैं विष्टा होती है, हड्डी का टुकडा होता हैं। दुर्गंध उसके मुह में होगी। कौवे की बोली बडी प्रखर हैं। बडी सख्त हैं। जो बन्दा बहुत सख्त बोले, कडुवा बोले, गंदा बोले, गालियाँ ही उसके मुह पर होवे, चार गालियाँ बोल कर ही बात शुरु करता हो तो साहिबो का कहना है कि ये कौवे वाली वृत्ति हैं। बडा कडक बोलता है, बडी कसक है इसकी बोली में, बडी चोट है, फिर बोलना बडा गंदा है तो मुह में इस गन्दगी का होना ये कौए की निशानी है। जिस समय मनुष्य के अन्दर कौवे की वृत्ति प्रधान होती है उसके मुह में गन्दगी आ जाती हैं।
बिन सिमरन डिग कर्म करास, काक बटन विष्टा में वास, बिन सिमरन गर्भक की नाई, सापध थाउ भ्रष्ट फिराई।
सिमरन को छोड़ कर जीव ऐसे जीता है जैसे कुत्ता, अब जो साहिब जी बताते है वो सबसे याद रखने वाली बात है
हर के नाम बिना है सुन्दर है नकटी, ज्यु वेश्वा के घर पूत जमत है तिस नाम परयों है प्रगटी।
वेश्या का पुत्र अपना नाम नही बोल सकता है किसी महफिल के वीच उसके पिता का नाम उसको पूछो तो वो बेचारा क्या बोलेगा क्योकि वेश्या का पुत्र हैं। इसलिये महफिल उसको शर्मसार करती है। गुरु अर्जुन देव जी महाराज का कहना है कि वेश्या के पुत्र को शर्मसार मत करों। वो सिर्फ अपने शरीर के पिता को नही जानता कि कौन है? और वेश्या का पुत्र नही हैं। वास्तव में वेश्या का पुत्र वो है जो जगतपिता को नही जानता जिसको जगत पिता का बोध नही हैं। जिसने इसकी माँ को भी पैदा किया, इसके पिता को भी पैदा किया और इसको भी पैदा किया है जिसको उसका बोध नही हैं वो वास्तविक में वेश्या का पुत्र हैं। ये इल्जाम इसलिये है न कि उस वास्ते कि वो वेश्या का पुत्र हैं। कारण ये है कि जिस समय मनुष्य नाम से टूटता हैं उसी समय अनगिनत पशु वृत्तियाँ उसके अन्दर जाग्रत हो जाती हैं और मनुष्य बहुत खतरनाक हो जाता हैं। जब खतरनाक हो जाता है तो फिर इस पर बंदिशें भी लगानी पड़ती हैं।
भाई गुरुदास जी कहते हैं कि मनुष्य को जीने का ढंग कीडी से सीखनी चाहियें। क्योकि जितने तेरे अन्दर अवगुण है उतने ही गुण भी हैं कीडीयों में एक खूबी होती है कि एक चोटी सी जगह में भी बहुत सारी एक साथ रहती है और प्यार के साथ में रहती है लेकिन मनुष्य बडे घर में दो परिवारों के साथ नही रह सकता हैं कीडी का आकार बहुत छोटा हैं लेकिन दिल बहुत बडा हैं। लेकिन मनुष्य का आकार बहुत बडा है पर दिल बहुत छोटा हैं। कीडी में एक और खूबी हैं कि घी शक्कर की खुशबू उसको आ जाये तो वो चल पडती है अकेले नही सभी को साथ लेकर, दाना मुह में लेकर आती है एक जगह पर रखती है और फिर दूसरा लेने जाती है क्योकि उसको विश्वास हैं कि जो दाना मैं रख कर गयी हूँ वो मुझे मिलेगा। पर मनुष्य की दुनिया में ये विश्वास नही हैं। अगर कोई चीज बाहर रख जाये तो उसको वो वापस मिलेगी कि नही उसको विश्वास नही हैं। मिल कर रहने की जो भावना कीडीयों के अन्दर है उतनी मनुष्य के अन्दर नही हैं।
इसलिये भाई गुरुदास जी कहते है कि हे मनुष्य तू प्रभु चिन्तन कर ताकि अपने अन्दर के पशुओं को तू बाहर निकाल सकें जिस दिन ये सारे पशु तेरे अन्दर से विदा हो जायेंगे उस दिन मनुष्यता निखर जायेगी। उस दिन वो जो प्रार्थना करता है तो उसके अन्दर देवत्व झलकता है। उसके अन्दर परमात्मा झलकता हैं, उसके अन्दर ईश्वर झलकता हैं। वो मनुष्य होते हुए ईश्वर की ज्योत प्रकट कर लेता हैं।
नामे नारायण नही भेद राम कबीरे भेद न पावे
मनुष्य दो जगत के बीच में है पशुओ का जगत और परमात्मा का जगत, पशुओ का जगत पीछें है और परमात्मा का जगत आगे हैं। जब पशु जगत की इच्छा मनुष्य के अन्दर जगती है तो वो दुराचारी बन जाता हैं तब वो किसी भी नियम को नही मानता परन्तु उसके अन्दर इच्छा उस प्रभु की भी हैं जो शिखर पर हैं। पशुओ का जगत नीचे है और प्रभु का जगत ऊपर हैं। मनुष्य इन दोनों के बीच में खडा हैं। कभी प्रभु की ओर खिचता है तो धर्म-मन्दिरों का रुख करता हैं। धर्म-ग्रन्थों का पाठ-पठन करता हैं। सतपुरुषों के बीच बैठता हैं और बैठकर आनंद मानता हैं। जब आनंद मना ही रहा होता है तो पशुओं के जगत का खिचाव शुरु हो जाता है क्योंकि राग-द्वेश-अहंकार उसके अन्दर आ जाते है फिर वो नीचे गिर जाता हैं। इसी तरह कभी ऊपर कभी तो कभी नीचे होता रहता है कारण कि पशुओं के जगत का अपना खिचाव है और प्रभु के जगत का अपना खिचाव हैं। सत्संग और साधना में बहुत ज्यादा जोर इसलिये दिया जाता है कि मनुष्य इस पशुओं के जगत के खिचाव से बच कर प्रभु के जगत के ओर पहुँच जाये और लीनता भी उसको इस तरह मिल जाये कि " नानक लीन भयों गोविन्द ज्यु पानी संग पानी " सरिता रेगिस्तान में भी खो सकती है और सरिता सागर में भी खो सकती हैं। सरिता अगर रेगिस्तान में खो गयी तो अपना वजूद मिटा देगी और अगर सागर में खोई तो सागर का रूप बन जायेगी। ऐसे ही मनुष्य अगर पशुओं के जगत में खो गया तो अपनी मनुष्यता खो बैठेगा और अगर परमात्मा में लीन हो गया तो परमात्मा का ही रूप हो जायेगा, ईश्वर का ही रूप हो जायेगा। और ईश्वर का रूप होने ही मनुष्य इस जगत में आया हैं।
ईश्वर को पाने के लिए, तत्त्वज्ञान पाने के लिए हमें प्रतीति से प्राप्ति में जाना पड़ेगा।

एक होती है प्रतीति और दूसरी होती है प्राप्ति। प्रतीति माने : देखने भर को जो प्राप्त हो वह है प्रतीति। जैसे गुलाब जामुन खाया। जिह्वा को स्वाद अच्छा लगा लेकिन कब तक ? जब तक गुलाब जामुन जीभ पर रहा तब तक । गले से नीचे उतरने पर वह पेट में खिचड़ी बन गया। सिनेमा में कोई दृश्य बड़ा अच्छा लगा आँखों को। ट्रेन या बस में बैठे पहाड़ियों के बीच से गुजर रहे हैं। संध्या का समय है। घना जंगल है। सूर्यास्त के इस मनोरम दृश्य को बादलों की घटा और अधिक मनोरम बना रही है। लेकिन कब तक ? जब तक आपको वह दृश्य दिखता रहा तब तक। आँखों से ओझल होने पर कुछ भी नहीं। सब प्रतीति मात्र था।

डिग्रियां मिल गई यह प्रतीति है। धन मिल गया, पद मिल गया, वैभव मिल गया यह भी प्रतीत है। मृत्यु का झटका आया कि सब मिला अमिला हो गया। रोज रात को नींद में सब मिला अमिला हो जाता है। तो यह सब मिला कुछ नहीं, मात्र धोखा है, धोखा। मुझे यह मिला.... मुझे वह मिला..... इस प्रकार सारी जिन्दगी जम्पींग करते-करते अंत में देखो तो कुछ नहीं मिला। जिसको मिला कहा वह शरीर भी जलाने को ले गये।

यह सब प्रतीति मात्र है, धोखा है। वास्तव में मिला कुछ नहीं।

दूसरी होती है प्राप्ति। प्राप्ति होती है परमात्मा की। वास्तव में मिलता तो है परमात्मा, बाकी जो कुछ भी मिलता है वह धोखा है।

परमात्मा तब मिलता है जब परमात्मा की प्रीति और परमात्म-प्राप्त, भगवत्प्राप्त महापुरुषों का सत्संग, सान्निध्य मिलता है। उससे शाश्वत परमात्मा की प्राप्ति होती है और बाकी सब प्रतीति है। चाहे कितनी भी प्रतीति हो जाये आखिर कुछ नहीं। ऊँचे ऊँचे पदों पर पहुँच गये, विश्व का राज्य मिल गया लेकिन आँख बन्द हुई तो सब समाप्त।

प्रतीति में आसक्त न हो और प्राप्ति में टिक जाओ तो जीते जी मुक्त हो।

प्रतीति मात्र में लोग उलझ जाते हैं परमात्मा के सिवाय जो कुछ भी मिलता है वह धोखा है। वास्तविक प्राप्ति होती है सत्संग से, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के संग से।

महावीर के जीवन में भी जो प्रतीति का प्रकाश हुआ वह तो कुछ धोखा था। वे इस हकीकत को जान गये। घरवालों के आग्रह से घर में रह रहे थे लेकिन घर में होते हुए भी वे अपनी आत्मा में चले जाते थे। आखिर घरवालों ने कहा कि तुम घर में रहो या बाहर, कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर एकान्त में चले गये। प्रतीति से मुख मोड़कर प्राप्ति में चले गये।
ईश्वरीय विधान में हम जितना अडिग रहते हैं उतनी ही प्रकृति अनुकूल हो जाती है। ईश्वरीय विधान में कम अडिग रहते है तो प्रकृति कम अनुकूल रहती है और ईश्वरीय विधान का उल्लंघन करते हैं तो प्रकृति हमें डण्डे मारती है।

जब-जब दुःख आ जाय, चिन्ता आ जाय, शोक आ जाय, भय आ जाय तो उस समय इतना तो जरूर समझ लें कि हमने ईश्वरीय विधान का कोई-न-कोई अनादर किया है। ईश्वर अपमान कराके हमें समतावान बनाना चाहते हैं और हम अपमान पसन्द नहीं करते हैं। यह ईश्वर का अनादर है। ईश्वर हमें मित्र देकर उत्साहित करना चाहते हैं लेकिन हम मित्रों की ममता में फँसते हैं इसलिए दुःख होता है। ईश्वर हमें धन देकर सत्कर्म कराना चाहते हैं लेकिन हम धन को पकड़ रखना चाहते हैं इसलिए 'टेन्शन' (तनाव) बढ़ जाता है। ईश्वर हमें कुटुम्ब-परिवार देकर इस संसार की भूलभुलैया से जागृत होने को कह रहे हैं लेकिन हम खिलौनों से खेलने लग जाते हैं तो संसार की ओर से थप्पड़ें पड़ती हैं।

ईश्वरीय विधान हमारी तरक्की.... तरक्की.... और तरक्की ही चाहता है। जब थप्पड़ पड़ती है तब भी हेतु तरक्की का है। जब अनुकूलता मिलती है तब ईश्वरीय विधान का हेतु हमारी तरक्की का है। जैसे माँ डाँटती है तो भी बच्चे के हित के लिए और प्यार-पुचकार करती है तो भी उसमें बच्चे का हित ही निहित होता है। ईश्वरीय विधान के अनुसार हमारी गलती होती है तो माँ डाँटती है, गलती न हो इसलिए डाँटती है।

जैसे माँ का, बाप का व्यवहार बच्चे के प्रति होता है ऐसे ही ईश्वरीय विधान का व्यवहार हम लोगों के प्रति होता है। यहाँ के विधान बदल जाते हैं, नगरपालिकाओं के विधान बदल जाते हैं, सरकार के कानून बदल जाते हैं लेकिन ईश्वरीय विधान सब काल के लिए, सब लोगों के लिए एक समान रहता है। उसमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, अपना पराया नहीं है, साधु-असाधु नहीं है। ईश्वरीय विधान साधु के लिए भी है और असाधु के लिए भी है। साधु भी अगर ईश्वरीय विधान साधु के लिए भी है और असाधु के लिए भी है। साधु अगर ईश्वरीय विधान के अनुकूल चलते हैं तो उनका चित्त प्रसन्न होता है, उदात्त बनता है। अपने पूर्वाग्रह या दुराग्रह छोड़कर तन-मन-वचन से प्राणिमात्र का कल्याण चाहते हैं तो ईश्वरीय विधान उनके अन्तःकरण में दिव्यता भर देता है। वे स्वार्थकेन्द्रित हो जाते हैं तो उनका अन्तःकरण संकुचित कर देता है।
अनेक संतों, ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जन्म की बड़ी महिमा गायी है। भगवान श्रीराम ने भी कहाः बड़े भाग मानुष तन पावा। देवयोनियों में सिर्फ भोग-सामग्रियाँ हैं। पशुयोनियों में दुःख और मूढ़ता है। एक मनुष्ययोनि ही ऐसी है, जिसमें सब दुःखों से सदा के लिए छुटकारा पाने का अवसर मिलता है।

सारे दुःखों का मूल कारण आत्म-अज्ञान है। इस अज्ञान को मिटाने के लिए आत्मविचार करो। स्वयं से बार बार पूछो कि 'मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? और कहाँ जाना है ?' इस प्रकार आत्मचिंतन करते-करते अज्ञान कम होने लगेगा और आपका वास्तविक सुख प्रकट होने लगेगा।

जगत के पदार्थों की तृष्णा मत करो। तृष्णा का पेट बहुत बड़ा होता है, वह कभी नहीं भरता। तृष्णा को संतोष से मिटाओ। यथाप्राप्त में संतोष और ईश्वरप्राप्ति की इच्छा यह परम कल्याण का मार्ग है। जैसे आकाश प्रत्येक स्थान पर है, ऐसे ही ईश्वर सर्वत्र है. उसकी अपार शक्ति हर जगह भरपूर है। आवश्यकता है ऐसी दृष्टि की जो उसे पहचान सके। संत नामदेव ने कुत्ते में भगवान का दर्शन किया। उसे घी और रोटी खिलायी। चित्त की सब इच्छाएँ भगवान को अर्पित कर दो। जब घोड़े पर सवार हो गये तो फिर इच्छारूपी बोझा अपने सिर पर क्यों रहने देते हो ? निर्वासनिक होकर सत्कर्म करो। ऐसा करने पर परमात्मा स्वयं तुम्हारे पास दौड़ता हुआ आयेगा।

प्रतिदिन रात को सोने से पहले और सुबह उठते ही भगवान से प्रार्थना करो। भगवन्नाम का जप करो। जो भगवान से प्रेम करता है, उसके लिए भगवान भी कष्ट सहन करते हैं। जिसकी भगवान में प्रीति है वह उनके उस धाम में पहुँचेगा, जहाँ पहुँचने पर फिर से जन्म-मृत्यु के महादुःख को नहीं सहना पड़ता।

भगवान का स्मरण करते हुए प्रतिदिन अपने व्यवहार में सुधार, पवित्रता और विवेक को बढ़ाओ। आहार, निद्रा, भोग आदि में मनुष्य और पशु में समानता है। उन्हें संयोग और वियोग पर होने वाले सुख-दुःख की अवस्था भी दोनों में है। फिर भी मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है, ऐसा क्यों ? क्योंकि उसमें एक ऐसी विशेष शक्ति है जो किसी भी दूसरे प्राणी में नहीं है। वह है विवेकशक्ति। इसके प्रभाव से मनुष्य यह जान सकता है कि सत्य क्या है ? मैं कौन हूँ ? ....परंतु यदि मनुष्य इस विवेकशक्ति का आदर नहीं करता और भोगों में ही अपने जीवन को समाप्त कर देता है तो फिर उसमें और पशु पक्षियों में कोई विशेष अंतर नहीं है। उसकी शारीरिक रचना भले भिन्न हो फिर भी वह पशु ही है।

जिसके पास विवेक नहीं है वह कभी भी पूर्ण सफल और सुखी नहीं हो सकता। सत्-असत् को पहचान कर सत् को अपनाओ। मैं देह हूँ.... संसार की वस्तुएँ मेरी हैं....यह विचार असत् है। इस मिथ्या अभिमान से सत् में स्थिति नहीं होगी। कैसी भी चिंता न करो क्योंकि चिंता चिता से बढ़कर है। चिता तो मुर्दे को जलाती है परंतु चिंता जीवित मनुष्य को ही भस्म कर देती है।

भगवान का नाम जपने से मंगल होता है क्योंकि भगवान मंगलस्वरूप हैं। जैसी प्रीति संसार के नश्वर पदार्थों में रखते हो, ऐसी यदि शाश्वत परमात्मा में रखोगे तो संसारसागर को सुगमता से पार कर लोगे। गृहस्थाश्रम में नीति व मर्यादा के मार्ग पर चलने से सुख प्राप्त होता है।

साधक को चाहिए कि वह अपने विवेक का आधार लेकर यह बात समझे कि उसे मनुष्य शरीर क्यों मिला है और उसका सदुपयोग कैसे किया जाय ? यदि विवेक को आगे रखकर संसार में रहोगे तो संसार में जो सार वस्तु है उस परमानंदस्वरूप परमात्मा को, वास्तविक सुख को पाने में सफल हो जाओगे।

Wednesday, June 02, 2010

क्या आप अपने-आपको दुर्बल मानते हो ? लघुताग्रंथी में उलझ कर परिस्तिथियों से पिस रहे हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठे हो ?

…तो अपने भीतर सुषुप्त आत्मबल को जगाओ | शरीर चाहे स्त्री का हो, चाहे पुरुष का, प्रकृति के साम्राज्य में जो जीते हैं वे सब स्त्री हैं और प्रकृति के बन्धन से पार अपने स्वरूप की पहचान जिन्होंने कर ली है, अपने मन की गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर जिन्होंने फेंक दी हैं, वे पुरुष हैं | स्त्री या पुरुष शरीर एवं मान्यताएँ होती हैं | तुम तो तन-मन से पार निर्मल आत्मा हो |

जागो…उठो…अपने भीतर सोये हुये निश्चयबल को जगाओ | सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को विकसित करो |
आत्मा में अथाह सामर्थ्य है | अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके | अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके |

भौतिक जगत में वाष्प की शक्ति, ईलेक्ट्रोनिक शक्ति, विद्युत की शक्ति, गुरुत्वाकर्षण की शक्ति बड़ी मानी जाती है लेकिन आत्मबल उन सब शक्तियों का संचालक बल है |

आत्मबल के सान्निध्य में आकर पंगु प्रारब्ध को पैर मिल जाते हैं, दैव की दीनता पलायन हो जाती हैं, प्रतिकूल परिस्तिथियाँ अनुकूल हो जाती हैं | आत्मबल सर्व रिद्धि-सिद्धियों का पिता है |
बालक सुधरे तो जग सुधरा। बालक-बालिकाएँ घर, समाज व देश की धरोहर हैं। इसलिए बचपन से ही उनके जीवन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। यदि बचपन से ही उनके रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल, शिष्टता और सदाचार पर सूक्ष्म दृष्टि से ध्यान दिया जाय तो उनका जीवन महान हो जायगा, इसमें कोई संशय नहीं है। लोग यह नहीं समझते कि आज के बालक कल के नागरिक हैं। बालक खराब अर्थात् समाज और देश का भविष्य खराब।

बालकों को नन्हीं उम्र से ही उत्तम संस्कार देने चाहिए। उन्हें स्वच्छताप्रेमी बनाना चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त में उठना, बड़ों की तथा दीन-दुःखियों की सेवा करना, भगवान का नामजप एवं ध्यान-प्रार्थना करना आदि उत्तम गुण बचपन से ही उनमें भरने चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त में उठने से आयु, बुद्धि, बल एवं आरोग्यता बढ़ती है। उन्हें सिखाना चाहिए कि खाना चबा-चबाकर खायें। समझदारों का कहना है कि प्रत्येक ग्रास को 32 बार चबाकर ही खायें तो अति उत्तम है।

उनके चरित्र-निर्माण पर विशेष ध्यान देना चाहिए। क्योंकि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ-कुछ गया परंतु चरित्र गया तो सब कुछ गया। यह चरित्र ही है जिससे दो पैरवाला प्राणी मनुष्य कहलाता है। सिनेमा के कारण बालकों का चरित्र बिगड़ रहा है। यदि इसकी जगह पर उन्हे ऊँची शिक्षा मिले तो रामराज्य हो जाय। प्राचीन काल में बचपन से ही धार्मिक शिक्षाएँ दी जाती थीं। माता जीजाबाई ने शिवाजी को बचपन से ही उत्तम संस्कार दिये थे, इसीलिए तो आज भी वे सम्मानित किये जा रहे हैं।

रानी मदलसा अपने बच्चों को त्याग और ब्रह्मज्ञान की लोरियाँ सुनाती थीं। जबकि आजकल की अधिकांश माताएँ तो बच्चों को चोर, डाकू और भूत की बातें सुनाकर डराती रहती है। वे बालकों को डाँटकर कहती हैं- 'सो जा नहीं तो बाबा उठाकर ले जायेगा.... चुप हो जा नहीं तो पागल बुढ़िया को दे दूँगी।' बचपन से ही उनमें भय के गलत संस्कार भर देती हैं। ऐसे बच्चे बड़े होकर कायर और डरपोक नहीं तो और क्या होंगे ? माता-पिता को चाहिए कि बच्चों के सामने कभी बुरे वचन न बोलें। उनसे कभी विवाद की बातें न करें।

बच्चों को सुबह-शाम प्रार्थना-वंदना, जप-ध्यान आदि सिखाना चाहिए। उनके भोजन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। उन्हें शुद्ध, सात्त्विक और पौष्टिक आहार देना चाहिए तथा लाल-मिर्च, तेज मसालेदार भोजन एवं बाजारू हलकी चीजें नहीं खिलानी चाहिए। आजकल लोग बच्चों को चाट-पकौड़े खिलाकर उन्हें चटोरा बना देते हैं।

उन्हें समझाना चाहिए कि सत्संग तारता है और कुसंग डुबाता है। समय के सदुपयोग, सत्शास्त्रों के अध्ययन और संयम-ब्रह्मचर्य की महिमा उन्हें समझानी चाहिए। मधुर भाषण, बड़ों का आदर, आज्ञापालन, परोपकार, सत्यभाषण एवं सदाचार आदि दैवी संपदावाले सदगुण उनमें प्रयत्नतः विकसित करने चाहिए।

अध्यापकों को भी विद्यालय में उनका सूक्ष्म दृष्टि से ध्यान रखना चाहिए। अध्यापक के जीवन का भी विद्यार्थियों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। शिक्षक ऐसा न समझें कि पुस्तकों में लिखी पेटपालू शिक्षा देकर हमने अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिया। लौकिक विद्या के साथ-साथ उन्हें चरित्र-निर्माण की, आदर्श मानव बनने की शिक्षा भी दीजिये। आपकी इस सेवा से यदि भारत का भविष्य उज्जवल बनता है तो आपके द्वारा सुसंस्कारी बालक बनाने की राष्ट्रसेवा, मानवसेवा हो जायेगी।

विद्यालय में अच्छे बच्चों के साथ कुछ उद्दण्ड एवं उच्छ्रंखल बच्चे भी आते हैं। उन पर यदि अंकुश नहीं लगाया गया तो अच्छे बच्चे भी उनके कुसंग में आकर बिगड़ जाते है। याद रखिये 'एक सड़ा हुआ आम पूरे टोकरे के आमों को खराब कर देता है।' इसलिए ऐसे बच्चों को सुसंस्कारवान बनाना चाहिए। बालक तो गीली मिट्टी जैसे होते हैं। शिक्षक एवं माता पिता उन्हें जैसा बनाना चाहें बना सकते हैं।

बालक इंजिन के समान है तथा माता पिता एवं गुरूजन ड्राइवर जैसे हैं। अतः उन्हें ध्यान रखना चाहे कि बालक कैसा संग करता है ? प्रातः जल्दी उठता है कि देर ? कहीं वह समय व्यर्थ तो नहीं गँवाता ? उन्हें बच्चों की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक उन्नति का भी ध्यान रखना चाहिए। कई माता पिता अपने बच्चों को उल्टी सीधी कहानियो की पुस्तकें देते हैं, जिनसे बच्चों के मन, बुद्धि चंचल हो जाते हैं। उनका यह शौक उन्हें आगे चलकर गंदे उपन्यास एवं फिल्मी पत्रिकाएँ पढ़ने का आदी बना देता है और उनका चरित्र गिरा देता है।

इसलिए बच्चों को सदैव सत्संग की पुस्तकें गीता, भागवत, रामायण आदि ग्रन्थ पढ़ने के लिए उत्साहित करना चाहिए। इससे उनके जीवन में दैवी गुणों का उदय होगा। उन्हें ध्रुव, प्रह्लाद, मीराबाई आदि की इस प्रकार कथा-कहानियाँ सुनानी चाहिए, जिनसे वे भी अपने जीवन को महान बनाकर सदा के लिए अमर हो जायें।

अंत में बालकों से मुझे यही कहना है कि माता, पिता एवं गुरूजनों की सेवा करते रहें, यही उत्तम धर्म है। गरीब एवं दीन दुःखियों को सँभालते रहें तथा ईश्वर को सदैव याद रखें जिसने हम सभी को बनाया है, भले कर्म करने की योग्यताएँ दी हैं। उसे स्मरण करने से सच्ची समृद्धि की प्राप्ति होगी।
जितने बढ़े व्यक्ति को हराया जाता है, उतना ही जीत का महत्त्व बढ़ जाता है । मन एक शक्तिशाली शत्रु है । उसे जीतने के लिए बुद्धिपूर्वक यत्न करना पड़ता है । मन जितना शक्तिशाली है, उस पर विजय पाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । मन को हराने की कला जिस मानव में आ जाती है, वह मानव महान् हो जाता है ।

‘श्रीमद् भगवद् गीता’ में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछता हैः

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथी बलवद् दृढ़म् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।

‘हे श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा ही चंचल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बड़ा बलवान् है । इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ |’
(गीताः6.34)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

असंशयं महाबाहो मनो दुनिर्ग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।

‘हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है । परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास अर्थात् एकीभाव में नित्य स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से वश में होता है |’
(गीताः 6.35)

जो लोग केवल वैराग्य का ही सहारा लेते है, वे मानसिक उन्माद के शिकार हो जाते हैं । मान लो, संसार में किसी निकटवर्ती के माता-पिता या कुटुम्बी की मृत्यु हो गयी । गये श्मशान में तो आ गया वैराग्य... किसी घटना को देखकर हो गया वैराग्य... चले गये गंगा किनारे... वस्त्र, बिस्तर आदि कुछ भी पास न रखा... भिक्षा माँगकर खा ली फिर... फिर अभ्यास नहीं किया । ... तो ऐसे लोगों का वैराग्य एकदेशीय हो जाता है ।

अभ्यास के बिना वैराग्य परिपक्व नहीं होता है । अभ्यासरहित जो वैराग्य है वह ‘मैं त्यागी हूँ’ ... ऐसा भाव उत्पन्न कर दूसरों को तुच्छ दिखाने वाला एवं अहंकार सजाने वाला हो सकता है । ऐसा वैराग्य अंदर का आनंद न देने के कारण बोझरूप हो सकता है । इसीलिए भगवान कहते हैं-

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।

अभ्यास की बलिहारी है क्योंकि मनुष्य जिस विषय का अभ्यास करता है, उसमें वह पारंगत हो जाता है । जैसे – साईकिल, मोटर आदि चलाने का अभ्यास है, पैसे सैट करने का अभ्यास है वैसे ही आत्म-अनात्म का विचार करके, मन की चंचल दशा को नियंत्रित करने का अभ्यास हो जाए तो मनुष्य सर्वोपरि सिद्धिरूप आत्मज्ञान को पा लेता है ।

साधक अलग-अलग मार्ग के होते हैं । कोई ज्ञानमार्गी होता है, कोई भक्तिमार्गी होता है, कोई कर्ममार्गी होता है तो कोई योगमार्गी होता है । सेवा में अगर निष्कामता हो अर्थात् वाहवाही की आकांक्षा न हो एवं सच्चे दिल से, परिश्रम से अपनी योग्यता ईश्वर के कार्य में लगा दे तो यह हो गया निष्काम कर्मयोग ।

निष्काम कर्मयोग में कहीं सकामता न आ जाये – इसके लिए सावधान रहे और कार्य करते-करते भी बार-बार अभ्यास करे किः ‘शरीर मेरा नहीं, पाँच भूतों का है । वस्तुएँ मेरी नहीं, ये मेरे से पहले भी थीं और मैं मरूँगा तब भी यहीं रहेंगी... जिसका सर्वस्व है उसको रिझाने के लिए मैं काम करता हूँ...’ ऐसा करने से सेवा करते-करते भी साधक का मन निर्वासिक सुख का एहसास कर सकता है ।

भक्तिमार्गी साधक भक्ति करते-करते ऐसा अभ्यास करे किः ‘अनंत ब्रह्माण्डनायक भगवान मेरे अपने हैं । मैं भगवान का हूँ तो आवश्यकता मेरी कैसी? मेरी आवश्यकता भी भगवान की आवश्यकता है, मेरा शरीर भी भगवान का शरीर है, मेरा घर भगवान का घर है, मेरा बेटा भगवान का बेटा है, मेरी बेटी भगवान की बेटी है, मेरी इज्जत भगवान की इज्जत है तो मुझे चिन्ता किस बात की?’ ऐसा अभ्यास करके भक्त निश्चिंत हो सकता है ।
मरो मरो सबको कहे,मरना न जाने कोई.....
एक बार ऐसा मरो ,फिर मरना न होए...........

"आज मजा आया.....आज उसकी बंदगी करने में मजा आ गया,आहहहा !!!!!!!!! रोज ऐसी मजा आया करे.........पर रोज ऐसे नहीं होता है......
जिस समय सुषुम्ना नाडी का द्वार खुल्ला होगा तब ही ऐसी मजा आयेगी.........बुधि में सत्वगुण हो जिस समय तब ही ऐसा मजा आयेगा.......
ये मजा आना और न आना ये आत्मा का स्वाभाव है......बस कम तमाम हो जाये इससे पहले उसको पालो............काम बन जाएगा.......
फिर ये मजा प्रतिदिन की हो जाएगी...........

निश्वासे नहीं विश्वास:
इस स्वाश की कोई गारंटी नहीं है........एक एक करके काम हो रहा है................उसको सही इस्तेमाल में लाओ.......

अहमदाबाद वाले कहेंगे की मुंबई में सुख है...मुंबई वाले कहेंगे की कोलकत्ता में सुख है........कोलकत्ता वाले कहेंगे की कश्मीर में सुख है.........
कश्मीर वाले कहेंगे की लग्न में सुख है........लग्न वाले कहेंगे की बल-बच्चो में सुख है ......
बल-बचे वाले कहेंगे की निवृति में सुख है.......फिर कहेंगे आखिर में की मरने में सुख है.........
ये एक की नहीं सबकी समस्या है......................
आखिर में कुछ हाथ नहीं लगने वाला ................खली रहे जाओगे..........

भूतकाल से बोध लेकर,वर्तमान में जिओ..........भविष्य की चिंता मत करो............कल क्या होगा?
क्या कहेंगे कल? अरे .......एक पंखी भी आनेवाले कल की नहीं सोचता की कल "डिन्नर" में क्या होगा?......
वो आराम-मस्ती से अपने गोसले में पलता है...........
प्रारब्ध वादी मत बनो.........पुरुषार्थ करे पर चिंतित होके नहीं...........

"मुर्दे को प्रभु देत है.......कपडा लकड़ा आग.......
जिन्दा नर चिंता करे ,उसके बड़े अभाग....."

अरे संसार के सभी दोस्त,कुटुंब के लोग आपको एक दिन कहेंगे की........
"यारो..!!!!हम बेवफाई करेंगे....................
तुम पैदल होंगे ,हम कंधे चलेंगे...."

सो,समय का अधिकतम सदुपयोग करले और जीवन को आनंदित-प्रफुल्लित बनाये..............
"""संसार तेरा घर नहीं, दो चार दिन रहेना यहाँ..................
कर याद अपने राज्य की,स्वराज्य निष्कंटक जहा............"""

हरी ॐ ....हरी ॐ......हरी ॐ...........

Monday, May 24, 2010

मन यदि संसार में उलझता है तो अपना सत्यानाश करता है। मन यदि परमात्मा में लगता है तो अपना एवं अपने सम्पर्क में आने वालों का बेड़ा पार करता है। इसलिए खूब सँभल-सँभलकर जीवन बिताओ। समय बड़ा मूल्यवान है। बीते हुए क्षण फिर वापस नहीं आते। निकला हुआ तीर फिर वापस नहीं आता। निकला हुआ शब्द वापस नहीं आता। सरिता के पानी में तुम एक बार ही स्नान कर सकते हो, दुबारा नहीं। दुबारा गोता लगाते हो तब तक तो वह पानी कहीं का कहीं पहुँच जाता है। ऐसे ही वर्त्तमान काल का तुम एक बार ही उपयोग कर सकते हो। यदि वर्त्तमानकाल भूतकाल बन गया तो वह कभी वापस नहीं लौटेगा। अतः सदैव वर्त्तमानकाल का सदुपयोग करो।

कौन क्या करता है इस झंझट में मत पड़ो। मेरी जात क्या है उसकी क्या जात है, मेरा गाँव कौन-सा है उसका गाँव कौन-सा है – अरे भैया ! सब इसी पृथ्वी पर हैं और एक ही आकाश के नीचे हैं। छोड़ दो मेरे गाँव तेरे गाँव पूछने की झंझट को।

हम यात्रा में जाते हैं तब लोग पूछते हैं- "तुम्हारा कौन सा गाँव ? तुम किधर से आये हो ?" अरे भैया ! हमारा गाँव ब्रह्म है। हम वहीं से आ रहे हैं, उसी में खेल रहे हैं और उसी में समाप्त हो जाएँगे। लेकिन यह भाषा समझने वाला कोई मिलता ही नहीं है। बड़े खेद की बात है कि सब लोग इस मुर्दे की पूछताछ करते हैं कि कहाँ से आये हो। जो मिट्टी से पैदा हुआ, मिट्टी में घूम रहा है और मिट्टी में मिलने के लिए ही बढ़ रहा है उसी का नाम, उसी का गाँव, उसी का पंथ, सम्प्रदाय पूछकर अपना भी समय गँवाते हैं और संतों का भी समय खराब कर देते हैं।

अपना नाम, अपना गाँव सच पूछो तो एक बार भी आपने ठीक से जान लिया तो बेड़ा पार हो जाएगा। अपना गाँव आज तक तुमने नहीं देखा। अपने घर का पता तुम दूसरों से भी नहीं पूछ पाते हो, अपने को तो पता नहीं लेकिन संतों ने जो पता बताया उसको भी नहीं समझ पाते हो।

दूसरे विश्वयुद्ध की एक घटना है। युद्ध में एक फौजी को बहुत बुरी तरह चोट लग गई थी। वह काफी समय तक बेहोश रहा। साथी उस अपने अड्डे पर उठा लाये। डॉक्टरों ने इलाज किया। वह शरीर से तो ठीक हो गया लेकिन अपनी स्मृति को खो बैठा। वह अपना नाम तक भूल चुका था। उसका कार्ड, उसका मिलिटरी का बैज कहीं से भी हाथ न लगा। वह कौन है, कहाँ का निवासी है कुछ भी पता न चल पाया। मनोवैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि उसे अपने देश में घुमाया जाय। अपना गाँव देखते ही उसकी स्मृति जग सकती है, वह ठीक सकता है। व्यवस्था की गई। दो आदमी उसके साथ रखे गये। इंग्लैंड के सब स्टेशनों पर उसे गाड़ी से नीचे उतारा जाता था, स्टेशन का साइन बोर्ड आदि दिखाया जाता, इधर-उधर घुमाया जाता। मरीज का कोई भी प्रतिभाव न दिखता तो उसे गाड़ी में बिठाकर दूसरे स्टेशनों पर ले जाते। इस प्रकार पूरा इंगलैंड घूम चुके लेकिन कहीं भी उसकी स्मृति जागी नहीं। उसके दोनों साथी निराश हो गये। वापस लौटते समय वे लोग लोकल ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। छोटा सा एक स्टेशन आया। गाड़ी रूकी। मरीज को नीचे उतारा। उसे उतारना व्यर्थ था लेकिन चलो, आखिरी दो-चार स्टेशन बाकी हैं तो विधि कर लें। फौजी को नीचे उतारा। साथी चाय-जलपान की व्यवस्था में लगे। उस फौजी ने स्टेशन को देखा, साइन बोर्ड देखा और उसकी स्मृति जाग आयी। वह तुरन्त फाटक से बाहर हो गया और फटाफट चलने लगा। मोहल्ले लाँघता-लाँघता वह अपने घर पहुँच गया। उसने देखा कि यह मेरी माँ है, यह मेरा बाप है। उसकी खोई हुई स्मृति जाग उठी।

सदगुरू भी तुम्हें अलग-अलग प्रयोगों से, अलग-अलग शब्दों से, अलग-अलग प्रक्रियाओं से तुम्हें यात्रा करवाते हैं, शायद तुम अपने असली गाँव का साइन बोर्ड देख लो, शायद तुम अपने गाँव की गली को देख लो, शायद अपना पुराना घर देख लो, जहाँ से तुम सदियों से बाहर निकल आये हो। तुम अपने उस घर की स्मृति खो बैठे हो। शायद तुम्हे उस घर का, गाँव का कुछ पता चल जाय। काश ! तुम्हें स्मृति आ जाय।

जगदगुरू श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कई गाँव दिखाये। सांख्य के द्वारा गाँव दिखाया, योग के द्वारा गाँव दिखाया, निष्काम कर्म के द्वारा गाँव दिखाया लेकिन अर्जुन अपने घर में नहीं जा रहा था। श्रीकृष्ण ने तब कहाः "हे अर्जुन ! अब तेरी मर्जी। यथेच्छसि तथा कुरू।"

अर्जुन बोलता हैः "नहीं मालिक ! प्रभु ऐसा न करो। मेरी बुद्धि कोई निर्णय नहीं ले सकती। मेरी बुद्धि अपने गाँव में प्रवेश नहीं कर पाती।"

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- "तो फिर छोड़ दे अपनी अक्ल-होशियारी का भरोसा छोड़ दे अपनी ऐहिक बातों का, मेरे-तेरे का और जीने-मरने का ख्याल। छोड़ दे करम-धरम की झंझट को। आ जा मेरी शरण में।

Thursday, May 20, 2010

|| श्री सुरेशानंद जी की अमृत वाणी ||

प्राणों की रक्षा हेतु मंत्र

हनुमानजी जब लंका से आये तो राम जी ने उनको पूछा कि , रामजी के वियोग में सीताजी अपने प्राणो की रक्षा कैसे करती हैं ?

तो हनुमान जी ने जो जवाब दिया उसे याद कर लो । अगर आप के घर में कोई अति अस्वस्थ है,जो बहुत बिमार है, अब नहीं बचेंगे ऐसा लगता हो, सभी डॉक्टर दवाईयाँ भी जवाब दे गईं हों, तो ऐसे व्यक्ति की प्राणों की रक्षा इस मंत्र से करो..उस व्यक्ति के पास बैठकर ये हनुमानजी का मंत्र जपो..तो ये सीता जी ने अपने प्राणों की रक्षा कैसे की ये हनुमानजी के वचन हैं..(सब बोलना)

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥

इसक अर्थ भी समझ लीजिये ।
' नाम पाहरू दिवस निसि ' ..... सीता जी के चारों तरफ आप के नाम का पहरा है । क्योंकि वे रात दिन आप के नाम का ही जप करती हैं । सदैव राम जी का ही ध्यान धरती हैं और जब भी आँखें खोलती हैं तो अपने चरणों में नज़र टिकाकर आप के चरण कमलों को ही याद करती रहती हैं ।

तो ' जाहिं प्रान केहिं बाट '..... सोचिये की आप के घर के चरों तरफ कड़ा पहरा है । छत और ज़मीन की तरफ से भी किसी के घुसने का मार्ग बंद कर दिया है, क्या कोई चोर अंदर घुस सकता है..? ऐसे ही सीता जी ने सभी ओर से श्री रामजी का रक्षा कवच धारण कर लिया है ..इस प्रकार वे अपने प्राणों की रक्षा करती हैं । तो ये मंत्र श्रद्धा के साथ जपेंगे तो आप भी किसी के प्राणों की रक्षा कर सकते हैं ।

Friday, May 14, 2010

संस्था समाचार :

राजस्थान के छोटे से शहर पीपाड में २८ व २९ जुलाई को सत्संग संपन्न हुआ. इस शहर में पूज्यश्री का प्रथम आगमन था . यहाँ पिछले तीन-चार साल से भारी अकाल था . न जाने क्यों इस क्षेत्र से मेघ देवता नाराज थे . लोगों ने पूज्यश्री से प्रार्थना की . सत्संग के दौरान उपस्थित श्रद्धालु श्रोताओं से पूज्यश्री न पूछा : “बरसात चाहिए?” सभी ने एक स्वर में हामी भरी और समस्त सत्संग मंडप में सन्नाटा छा गया . पूज्यश्री मौन हो गए . बारिश लाने के मंत्र का स्मरण किया . कुछ ही क्षणों में तेज बारिश शुरू हो गयी, बारिश के इंतज़ार में मुरझाये स्थानीय लोगों के चेहरों पर खुशी छा गयी . तेज बरसात देखकर लोग चकित हो गए, नाचने लगे .

प्रार्थना और मंत्र के बल का प्रत्यक्ष दर्शन करके ईश्वर के प्रति लोगों की आस्था बढ़ी, आनंद बढ़ा . पूज्य बापूजी के समक्ष प्रत्यक्ष दैवी लीला को देखकर लोग निहाल हो गए . इसके हजारों प्रत्यक्षदर्शी रहे . भारतीय संस्कृति का मंत्र-विज्ञान अभी भी सक्षम है. शुद्ध ह्रदय व श्रद्धावान मंत्रशक्ति को जाग्रत कर लेते हैं और घटना घाट जाती है . जैसे १९५६ में राजगोपालाचारी ने वर्षा करा दी .

क्षेत्र में बस एक ही चर्चा आम हो गयी, सभी की जुबान पर यही सुनाई दे रहा था कि “बापू आये, बरसात लाये .”

स्रोत्र : पेज ३३, ऋषि प्रसाद, सितम्बर २००६, वर्ष : १७, अंक : १६५
The mind is the reason behind a person's bondage or salvation. Pious and benevolent resolves and actions purify the mind, remove all faults and lead to final salvation, says Lilashahji in a discourse.

The same mind, when it becomes impure by impious resolves and actions, promotes insentience and binds one to bondage of this world.

Take your mind to task everyday! Constantly counsel your mind. "O restless mind! Now be quiet and steady. Why do you disturb me by wandering all the time? Time and again you run after sense pleasures and worldly relations, seeking company in relationships but don’t you know that they are short-lived? You have been forced to abandon them in all of your previous lives and will have to abandon them in this life as well. So immerse yourself in meditation of your True Self that is always with you, that is Bliss Supreme.”

The mind is deceptive. Never trust it. Keep a constant watch to see whether the mind is following your commands. Keep a vigil on its activities at all times. You have to always be ready to discipline the mind with the stick of insightful discrimination, ready to take preventive action and restrain the mind from engaging in any act of transgression against established principles and time-tested social norms.

Never allow the mind free rein because it is an incredible treasure house of tremendous powers. It is such a fast horse as can easily and quickly simply gallop towards its goal if only given good direction by keeping it in control. Without restraint, it is most likely to go berserk and throw you into a pile of thorny bushes. Always keep a tight vigil on the mind. Do not give it free time at all; otherwise it will suck you into undesirable activity. As the saying goes, 'An idle mind is a devil's workshop'. Therefore, always keep the mind engaged in some worthwhile pursuit, something that requires application of the mind.

Ruminate on the Self, study the scriptures, listen to the discourses of the wise and those with positive knowledge and engage yourself in chanting the name of the Supreme Being. Never allow the mind to run free. And when it strays, as it frequently will, prod it and rein it back. Just as a large animal can be controlled with a goad, the mind will also come under your complete control with constant monitoring and discipline. The mind has no sovereign power of its own; you yourself have created it. It is your own child whom you have spoilt with excessive pampering. Insightful restraint is the key to keep a loved one from straying. A sapling must be protected until it grows and turns into a tree. Similarly, your constant vigil is required to protect the mind from going berserk.

Towards accomplishing this, the following experiment could prove instructive: Lie down flat on a blanket. Leave the body loose and relaxed. Keep yourself completely calm. Forget the whole world and when you’ll think with a tranquil mind, you will see that all events of happiness and sorrow are the results of your own past deeds; and friends or foes are only instrumental in bringing to you what is your due. When you are awake, the world exists; and when you are asleep, it ceases to exist. In effect, the world is unreal; it’s like a dream. This is the Truth and this is ultimate reality.

As the mind comes to realise the Truth, it will become calm and silent. A silent and serene mind is always pure.

Lilashahji is Asaram Bapu’s guru. www.ashram.org
source: http://timesofindia.indiatimes.com/Life/Spirituality/Speaking-Tree/Mind-Good-servant-bad-master/articleshow/5920884.cms
भजन : भगवत अवतार

जब – जब भी धरती पर हुई है धर्म की हानि
अवतार लेकर आते हैं भगवान हे प्राणी

एक समय का जिक्र करें, जब कंस ने हाहाकार किया
मार दिया निर्मल शिशुओं को, बहन पे अत्याचार किया
हुआ कृष्ण अवतार, रोकी उसकी मनमानी -२
अवतार लेकर आते हैं भगवान हे प्राणी

एक बालक प्रहलाद हुआ, जो भक्त था भगवान का
हिरंन्यकुश ने किया प्रताड़ित, भोग्य बना अपमान का
हुआ नरसिह अवतार, और मारा अभिमानी -२
अवतार लेकर आते हैं भगवान हे प्राणी

“शुभ” सेवक की गुरु चरणों में, विनती बारम्बार है
सत्संग – दर्शन मिले निरंतर, अर्ज यही हर बार है
क्षमा करो इस दास की, मेरे “बापू” नादानी -२

रचना: अभिषेक मैत्रेय “शुभ”

Thursday, May 13, 2010

जब दुःख आयें तब बड़ों की शरण लेनी चाहिए। किसी न किसी की शरण लिये बिना हम लोग जी नहीं सकते, टिक नहीं सकते। दुर्बल को बलवान की शरण लेनी चाहिए।
बलवान कौन है ? जो दण्ड-बैठक करता है वह बलवान है ? जिसके पास सारे विश्व की कुर्सियाँ अत्यंत छोटी पड़ जाती हैं वह सर्वेश्वर सर्वाधिक बलवान है। तुम उस बलवान की शरण चले जाओ। बलवान की शरण गाँधीनगर में नहीं, बलवान की शरण दिल्ली में नहीं, किसी नगर में नहीं बल्कि वह तुम्हारे दिल के नगर में सदा के लिए मौजूद है। सच्चे हृदय से उनकी शरण चले गये तो तुरन्त वहाँ से प्रेरणा, स्फूर्ति और सहारा मिल जाता है। वह सहारा कइयों को मिला है। हम लोग भी वह सहारा पाने के लिए तत्पर हैं इसीलिए सत्संग में आ पहुँचे हैं।
तुम कब तक बाहर के सहारे लेते रहोगे ? एक ही समर्थ का सहारा ले लो। वह परम समर्थ परमात्मा है। उससे प्रीति करने लग जाओ। उस पर तुम अपने जीवन की बागडोर छोड़ दो। तुम निश्चिन्त हो जाओगे तो तुम्हारे द्वारा अदभुत काम होने लगेंगे परन्तु राग तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने देगा। जब राग तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने दे तब सोचोः
'हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !

एक सेठ के हाथ में एक गुलदस्ता था। उसने उसे एक संत को दे दिया। संत गुलदस्ता देखने लगे। उसमें प्रत्येक फूल को देखकर वे प्रसन्न हुए और उसकी सुगन्ध की प्रशंसा करने लगे। सेठ सोचने लगा कि 'महाराज तो गुलदस्ते में ही मग्न हो गये, देने वाले की ओर देखते तक नहीं।' बड़ी देर हुई तो सेठ से रहा नहीं गया। उसने कहाः "स्वामी जी ! जरा मेरी ओर भी देखिये। मुझे आपसे कुछ जानना है।" सेठ की बात सुनकर संत ने गुलदस्ता रख दिया और बोलेः "सेठ जी ! यह तो मैं दृष्टांत दे रहा था। सेठों का भी सेठ परमात्मा है और ये सांसारिक पदार्थ हैं गुलदस्ते के फूल जो उसी ने हमें दिये हैं किंतु हम इनमें इतने लीन हो गये कि उस दाता की याद ही नहीं आती।"

जैसे स्वप्न की सृष्टि एक काल्पनिक बगीचा है, उसी प्रकार यह जाग्रत जगत भी मन की कल्पना ही है। सपने की सृष्टि उस समय सत्य लगती है परंतु जागने पर कुछ भी नहीं रहता, वैसे ही आत्मा का ज्ञान होने पर जाग्रत जगत भी स्वप्नवत् हो जाता है। संसार में जो कुछ भी सौन्दर्य एवं आनंद दिखायी पड़ती है, उसका कारण अज्ञान है। शरीर और संसार के पदार्थ नाशवान हैं। एक आत्मा ही सत्, चित्त और आनंदस्वरूप है। जब आप आम खाते हो तो आपको वह मीठा लगता है और समझते हो कि उससे आनंद मिल रहा है। यह नासमझी है, अज्ञान है।

आनंद आम से नहीं मिल रहा अपितु आम खाते समय उसके स्वाद में मन स्थिर हो गया, चित्तवृत्तियाँ थोड़ी शांत अथवा कम हो गयीं तभी वहाँ से आनंद मिला अर्थात् आनंद मिला मन के स्थिर होने से। परंतु यह स्थिरता क्षणिक है। थोड़ी देर बाद फिर से खटपट शुरू हो जायेगी और आम खाने की तृष्णा भी बढ़ जायेगी, मन आपको आम का गुलाम बना देगा। किंतु जब आत्मरस मिलता है, भगवद् भक्ति तथा भगवद् ज्ञान का अखूट आनंद मिलता है तब मन उसमें स्थिर ही अपितु लीन भी हो जाता है। जब मन थोड़ी देर के लिए आम में स्थिर हुआ तो इतना आनंद मिला, यदि उस सच्चिदानंद में ही लीन हो जाय तो वह आनंद कैसा होगा ! उसका तो वाणी वर्णन ही नहीं कर सकती। उसको हम पूरी तरह से शब्दों के द्वारा नहीं समझा सकते। उसको तो अनुभव के द्वारा ही जान सकते हैं और उसका अनुभव होता है साधना, विवेक तथा वैराग्य द्वारा।

स्रोत्र : http://www.facebook.com/note.php?note_id=421587272194&comments#!/note.php?note_id=422216257194&comments

Wednesday, May 12, 2010

1000 names of LORD VISHNU DO JAP ON EKADASHI VISHNU SHAHSTRA NAMAVALI IN HINDI

ॐ क्शोबनाया नमः
ॐ देवाय नमः
ॐ श्रीगार्बया नमः
ॐ परमेश्वराय नमः
ॐ करनाय नमः
ॐ करतरे नमः
ॐ विकारातरे नमः
ॐ गहनाय नमः
ॐ गुहाया नमः
ॐ व्यवसायाय नमः
ॐ व्यवस्थानाया नमः
ॐ सम्स्थानाया नमः
ॐ स्थानाधाया नमः
ॐ ध्रुवाय नमः
ॐ परर्द्धये नमः
ॐ परमस्पस्ताया नमः
ॐ ठुस्ताया नमः
ॐ पुश्ताया नमः
ॐ सुबेक्षनाया नमः
ॐ रामय नमः
ॐ विरामाय नमः
ॐ विर्जय नमः
ॐ मार्गाय नमः
ॐ नीय नमः
ॐ न्याय नमः
ॐ अन्याय नमः
ॐ वीर्य नमः
ॐ शक्तिमता श्रेश्ताया नमः
ॐ धर्मय नमः
ॐ धर्माविदुत्तामाया नमः
ॐ वैकुंताया नमः
ॐ पुरुषाय नमः
ॐ प्राणाया नमः
ॐ प्रान्दाया नमः
ॐ प्राणवाय नमः
ॐ प्रिथ्वे नमः
ॐ हिरान्यगार्भय नमः
ॐ शत्रुग्नाया नमः
ॐ व्याप्थाया नमः
ॐ वायवे नमः
ॐ अधोक्षजाय नमः
ॐ रितुह्वे नमः
ॐ सुदर्शनाय नमः
ॐ कालाय नमः
ॐ परमेस्तिने नमः
ॐ परिग्रहाय नमः
ॐ उग्राय नमः
ॐ संवत्सराय नमः
ॐ दक्षाय नमः
ॐ विश्रामाय नमः
ॐ विश्वदाक्षिनाया नमः
ॐ विस्थाराया नमः
ॐ स्थावारास्थानावे नमः
ॐ प्रमानाया नमः
ॐ बिजय अव्ययाय नमः
ॐ अर्थाय नमः
ॐ अनर्थाय नमः
ॐ महाकोशाय नमः
ॐ महाभोगाय नमः
ॐ महाधनाय नमः
ॐ अनिर्विन्नाहाया नमः
ॐ स्थाविस्ताया नमः
ॐ अभुवे नमः
ॐ धर्मवुपाया नमः
ॐ महामकाया नमः
ॐ नक्षत्रनेमये नमः
ॐ नक्शाथ्रिने नमः
ॐ क्षमाया नमः
ॐ क्शामाया नमः
ॐ समिहनाया नमः
ॐ याग्नाया नमः
ॐ इज्याय नमः
ॐ महेज्याय नमः
ॐ क्रिथावे नमः
ॐ सत्राय नमः
ॐ सता गाथाये नमः
ॐ सर्वधार्शिने नमः
ॐ विभुक्थात्माने नमः
ॐ सर्वग्नाया नमः
ॐ ज्नानामुत्थामाया नमः
ॐ सुव्रथाया नमः
ॐ सुमुखाय नमः
ॐ सूक्ष्माय नमः
ॐ सुघोशाया नमः
ॐ सुखदाय नमः
ॐ सुह्रिद्ये नमः
ॐ मनोहराय नमः
ॐ जितक्रोधाय नमः
ॐ वीराभाहावे नमः
ॐ विधार्नाया नमः
ॐ स्वापनाय नमः
ॐ स्ववशाय नमः
ॐ व्यापिने नमः
ॐ नैकात्मने नमः
ॐ नैककर्मक्रिहते नमः
ॐ वत्सराया नमः
ॐ वत्सलाय नमः
ॐ वाथ्सिने नमः
ॐ रत्नागार्बहाया नमः
ॐ धनेश्वराया नमः
ॐ धर्मगुपे नमः
ॐ धर्मक्रिहते नमः
ॐ धर्मिने नमः
ॐ साथै नमः
ॐ असते नमः
ॐ क्षराय नमः
ॐ अक्षराय नमः
ॐ अविज्नातरे नमः
ॐ सहस्थ्रान्श्वे नमः
ॐ विधात्रे नमः
ॐ क्रिह्थालाक्षनाया नमः
ॐ घबस्थिनेय्माये नमः ·
ॐ सत्त्वस्थाय नमः
ॐ सिम्हाया नमः
ॐ भूथामाहेश्वराया नमः
ॐ आदिदेवाय नमः
ॐ महादेवाय नमः
ॐ देवेशाय नमः
ॐ देव्ब्रिहद्गुरावे नमः
ॐ उत्ताराय नमः
ॐ गोपथाये नमः
ॐ गोप्त्रे नमः
ॐ ज्नानागाम्याया नमः
ॐ पुरातनाय नमः
ॐ शरीराभ्रुथाभ्रुठे नमः
ॐ भोख्थ्रे नमः
ॐ कपीन्द्राय नमः
ॐ भुरिधाक्षिनाया नमः
ॐ सोमपाय नमः
ॐ अम्रुथापाया नमः
ॐ सोमाय नमः
ॐ पुरुजिते नमः
ॐ पुरुसत्तामाया नमः
ॐ विन्याया नमः
ॐ जयाय नमः
ॐ सत्यसंधाय नमः
ॐ दाशाही नमः
ॐ सात्वता पतये नमः
ॐ जीवाय नमः
ॐ विनायिथासाक्षिने नमः
ॐ मुकुन्दाय नमः
ॐ अमितविक्रमाय नमः
ॐ अम्भोनिधये नमः
· ॐ अनंथात्माने नमः
ॐ महोदाधिशयाया नमः
ॐ अन्थाकाया नमः
ॐ अजय नमः
ॐ महाहाही नमः
ॐ स्वाभाव्याय नमः
ॐ जितामित्राय नमः
ॐ प्रमोदनाय नमः
ॐ आनंदाय नमः
ॐ नन्दनाय नमः
ॐ नन्दाय नमः
ॐ सत्याधार्माने नमः
ॐ त्रिविक्रमाय नमः
ॐ महर्षये कपिलाचाराया नमः
ॐ क्रिथाग्नाया नमः
ॐ मेदिनिपताये नमः
ॐ त्रिपदाय नमः
ॐ त्रिदशाध्यक्षाय नमः
ॐ महासृन्गाया नमः
ॐ क्रुथान्थ्क्रिठे नमः
ॐ महावाराहाया नमः
ॐ गोविन्दाय नमः
ॐ सुशेनाया नमः
ॐ कनाकान्गादिने नमः
ॐ गुह्याय नमः
ॐ गबिराया नमः
ॐ गहनाय नमः
ॐ गुप्ताय नमः
ॐ चक्रगढ़ाधाराया नमः
ॐ वेधसे नमः
ॐ स्वान्घाया नमः
ॐ शुभान्गाया नमः
ॐ शान्तिदाय नमः
ॐ श्थ्रास्ते नमः
ॐ कुमुदाय नमः
ॐ कुवालेशायाया नमः
ॐ गोहिथाया नमः
ॐ गोप्थाये नमः
ॐ गोप्त्रे नमः
ॐ वृशाभाक्षाया नमः
ॐ अनिवार्थाने नमः
ॐ निवृथात्माने नमः
ॐ संक्षेप्त्हरे नमः
ॐ क्षेमाक्रिठे नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ श्रीवत्सवक्षसे नमः
ॐ श्रीवासाय नमः
ॐ श्रीपतये नमः
ॐ श्रीमाता वराय नमः
ॐ श्रीदाय नमः
ॐ श्रीशाय नमः
ॐ श्रीनिवासाय नमः
ॐ श्रीनिधये नमः
ॐ श्रीविभावनाय नमः
ॐ श्रीधराय नमः
ॐ श्रीकराय नमः
ॐ श्रेयसे नमः
ॐ श्रीमते नमः
· ॐ लोक्थ्रयाश्रयाया नमः
ॐ स्वक्षाय नमः
ॐ स्वन्गाया नमः
ॐ शतानन्दाय नमः
ॐ नन्दये नमः
ॐ ज्योथिर्गानेश्वराया नमः
ॐ विजीतात्माने नमः
ॐ विधेयात्माने नमः
ॐ सत्कीर्थाये नमः
ॐ चिन्नासंशायाया नमः
ॐ उधीर्नाया नमः
ॐ ब्रह्माने नमः
ॐ ब्रह्मविवर्धनाय नमः
· ॐ ब्रह्मविधे नमः
ॐ ब्रह्मनाया नमः
ॐ ब्रह्मिने नमः
ॐ ब्रह्मज्नाया नमः
ॐ ब्राह्मनाप्रियाया नमः
ॐ महाक्रमाय नमः
ॐ महकर्माने नमः
ॐ महातेजसे नमः
ॐ महोर्गाया नमः
ॐ महक्रिथावे नमः
ॐ महायज्वने नमः
ॐ महायाग्नाया नमः
ॐ महाहविषे नमः
ॐ स्थाव्याया नमः
ॐ स्थावाप्रियाया नमः
ॐ स्थोथ्राया नमः
ॐ स्थुथाये नमः
ॐ स्थोथ्रे नमः
ॐ रणप्रियाय नमः
ॐ पूर्णाय नमः
ॐ पुरयिथ्रे नमः
ॐ पुण्याय नमः
ॐ पुन्यकीर्थाये नमः
ॐ अनामयाय नमः
ॐ मनोजवाय नमः
ॐ थीर्थाकराया नमः
ॐ वसुरेथासे नमः
ॐ वसुप्रदाय नमः
ॐ वसुप्रदाय नमः
ॐ वासुदेवाय नमः
ॐ वासवे नमः
ॐ वसुमनसे नमः
ॐ हविषे नमः
ॐ सद्गतये नमः
ॐ सत्क्रिथाये नमः
ॐ सत्ताये नमः
ॐ वरान्गाया नमः
ॐ चंदानान्गादिने नमः
ॐ वीरागने नमः
ॐ विशामाया नमः
ॐ शून्याय नमः
ॐ ढूथाशिशे नमः
ॐ अचलाय नमः
ॐ चलाया नमः
ॐ अमानिने नमः
ॐ मानदाय नमः
ॐ मान्याय नमः
ॐ लोकस्वामिने नमः
ॐ त्रिलोकध्रिगे नमः
ॐ सुमेधसे नमः
ॐ मेधजाय नमः
ॐ धन्याय नमः
ॐ सत्यमेधसे नमः
ॐ धराधराय नमः
ॐ तेजोवृशाया नमः
ॐ ध्युथिधाराया नमः
ॐ सर्वशाश्त्रब्रिह्ता वराय नमः
ॐ प्रग्रहाय नमः
ॐ निग्रहाय नमः
ॐ व्यग्राय नमः
ॐ नैकश्रीन्गाया नमः
ॐ गदाग्रिजाया नमः
ॐ चाठुर्मुर्थाये नमः
ॐ चाठुर्बहिवे नमः
ॐ चाठुव्युहाया नमः
ॐ चाठुर्गाथाये नमः
ॐ चाठुरात्माने नमः
ॐ चाठुर्भावाया नमः
ॐ चाठुर्वेदाविधे नमः
ॐ एकपदे नमः
ॐ समावार्थाया नमः
ॐ निवृत्थात्माने नमः
ॐ धुर्ज्याया नमः
ॐ धुराथिक्रमाया नमः
ॐ धुर्लाभाया नमः
ॐ दुर्गामाया नमः
ॐ दुर्गाया नमः
ॐ दुरावासाय नमः
ॐ दुरारिगने नमः
ॐ शुभान्गाया नमः
ॐ लोकासारान्गाया नमः
ॐ सुतन्तवे नमः
ॐ थान्ठुवार्धनाया नमः
ॐ इन्द्रकर्माने नमः
ॐ महकर्माने नमः
ॐ क्रिथाकर्माने नमः
ॐ क्रिथागामाया नमः
ॐ उध्भावाया नमः
ॐ सुन्दराय नमः
ॐ सुन्धाया नमः
ॐ रत्नानाभाया नमः
ॐ सुलोचनाय नमः
ॐ अर्काय नमः
· ॐ वाजसनाय नमः
ॐ श्रीन्गाने नमः
ॐ जयंथाया नमः
ॐ सर्वविज्जैने नमः
ॐ सुवार्नाबिन्दावे नमः
ॐ अक्षोभ्याय नमः
ॐ श्रर्ववाघीश्वरेश्वराय नमः
ॐ महाह्रुदाया नमः
ॐ महागार्थाया नमः
ॐ महाभुथाया नमः
ॐ महानिधये नमः
ॐ कुमुदाय नमः
ॐ कुन्दराय नमः
ॐ कुन्दाय नमः
ॐ पुर्जन्याया नमः
ॐ पावनाय नमः
ॐ अनिलाय नमः
ॐ अम्रुथान्शाया नमः
ॐ अम्रुथावापुशे नमः
ॐ सर्वग्नाया नमः
ॐ सर्वथोमुखाया नमः
ॐ सुलभाय नमः
ॐ सुव्रथाया नमः
ॐ सिद्धाय नमः
ॐ शाथ्रुजिते नमः
ॐ शाथ्रुताप्नाया नमः
ॐ न्यग्रोधाय नमः
ॐ उदुम्ब्राया नमः
ॐ अश्वत्थाय नमः
· ॐ चानुरान्द्रनिशुदानाया नमः
ॐ सहस्थ्रार्चिशे नमः
ॐ सप्थाजीवाया नमः
ॐ सप्ठेधासे नमः
ॐ सप्थावाहनाया नमः
ॐ अम्रुर्थाये नमः
ॐ अनघाय नमः
ॐ अचिन्त्याय नमः
ॐ भायाक्रिह्ठे नमः
ॐ भायानाशानाया नमः
ॐ अनावे नमः
ॐ ब्रिहठे नमः
ॐ कृशाय नमः
ॐ स्थोलाया नमः
ॐ ग्रिनाभ्रुठे नमः
ॐ निर्गुणाय नमः
ॐ महाथे नमः
ॐ अध्राथाया नमः
ॐ स्वध्राथाया नमः
ॐ स्वास्याय नमः
ॐ प्राग्वंशाय नमः
ॐ वन्श्वर्धनाया नमः
ॐ भारभ्रिठे नमः
ॐ कठिथाया नमः
ॐ योगिने नमः
ॐ योगीशाय नमः
ॐ सर्वकामदाय नमः
· ॐ आश्रमाय नमः
ॐ श्रमानाया नमः
ॐ क्षामाय नमः
ॐ सुपर्नाया नमः
ॐ वायुवाहनाय नमः
ॐ धनुर्धराय नमः
ॐ धनुर्वेदाय नमः
ॐ धनदाय नमः
ॐ धमयिथ्रे नमः
ॐ धमाया नमः
ॐ अपराजिताय नमः
ॐ सर्वसहाय नमः
ॐ अनियांथ्रे नमः
ॐ अनियामाया नमः
ॐ यमाय नमः
ॐ सत्त्ववाठे नमः
ॐ सत्त्विकाया नमः
ॐ सथ्याया नमः
ॐ सथ्यधार्मापरायानाया नमः
ॐ अभिप्रायाय नमः
ॐ प्रियाराहाया नमः
ॐ अरहाया नमः
ॐ प्रहिक्रिह्ठे नमः
ॐ प्रीतिवर्धनाय नमः
ॐ विहायासगाथाये नमः
ॐ ज्योथिशे नमः
ॐ सुरुचये नमः
ॐ हुथाभूजे नमः
ॐ विभवे नमः
ॐ रवये नमः
ॐ विरोचनाय नमः
ॐ सूर्याय नमः
ॐ सवित्रे नमः
ॐ रविलोचनाय नमः
ॐ अनंथाया नमः
ॐ हुथाभूजे नमः
ॐ भोक्त्हरे नमः
ॐ सुखदाय नमः
ॐ नैकजाय नमः
ॐ अग्रजाय नमः
ॐ अनिर्विन्नाया नमः
ॐ सदमर्शिने नमः
ॐ लोकाधिश्तानाया नमः
ॐ अध्भुथाया नमः
ॐ सनाथ नमः
ॐ सनाथानाथामाया नमः
ॐ कपिलाय नमः
ॐ कपये नमः
ॐ अप्यायाया नमः
ॐ स्वस्थिदाया नमः
ॐ स्वस्थिक्रिह्ठे नमः
ॐ स्वस्थिभूजे नमः
ॐ स्वस्थिधाक्षिनाया नमः
ॐ अरौध्राया नमः
ॐ कुण्डलिने नमः
ॐ चक्रिने नमः
ॐ विक्रमिने नमः
ॐ ऊऊर्जिथशासनाय नमः
ॐ शब्दाथिगाया नमः
· ॐ शब्दसहाय नमः
ॐ शिशिराय नमः
ॐ शर्वरीकराय नमः
ॐ अक्रूराय नमः
ॐ पेशलाय नमः
ॐ धक्शाया नमः
ॐ दक्शिनाया नमः
ॐ क्षमिना वराय नमः
ॐ विदुत्तामाया नमः
ॐ वीथाभायाया नमः
ॐ पुण्य श्रवानाकीर्थानाया नमः
ॐ उत्तारानाया नमः
ॐ दुश्क्रिथिगने नमः
ॐ पुण्याय नमः
ॐ दुस्वप्नानाशानाया नमः
ॐ वीरागने नमः
ॐ रक्षानाया नमः
ॐ सद्भयो नमः
ॐ जीवनाय नमः
ॐ पर्यवास्थिथाया नमः
ॐ अनंथारूपाया नमः
ॐ अनंथाश्रिये नमः
ॐ जितमन्यवे नमः
ॐ भयापहाय नमः
ॐ चतुर्स्थ्राया नमः
ॐ गबीरात्मने नमः
ॐ विदीशाया नमः
ॐ व्याधिशाया नमः
ॐ दिशाय नमः
ॐ अनादये नमः
ॐ भुर्भुवाया नमः
ॐ लक्ष्म्ये नमः
ॐ सुविराया नमः
ॐ रुचिरान्ग्दाया नमः
ॐ जननाय नमः
ॐ जनजन्मादये नमः
ॐ भीमाय नमः
ॐ भीमपराक्रमाय नमः
ॐ आधार्निलायाया नमः
ॐ अधाथ्रे नमः
ॐ पुष्पहासाय नमः
ॐ प्रजागराय नमः
ॐ ऊर्ध्वगाय नमः
ॐ सत्पथाचाराय नमः
ॐ प्रानादाया नमः
ॐ प्राणवाय नमः
ॐ प्राणाया नमः
ॐ प्रमानाया नमः
ॐ प्रानानिलायाया नमः
ॐ प्रानाभ्रिह्ठे नमः
ॐ प्रानाजीवानाया नमः
ॐ तत्त्वाय नमः
ॐ तत्त्वविधे नमः
ॐ एकात्मने नमः
ॐ जन्मा मृत्यु जराथिगाया नमः
ॐ भूर्भुव स्वस्थारावे नमः
ॐ ताराया नमः
ॐ सवित्रे नमः
ॐ प्रपिथाम्हाया नमः
ॐ याग्नाया नमः
ॐ याग्नपथाये नमः
ॐ यज्वने नमः
ॐ याग्नान्गाया नमः
ॐ याग्नवाहानाया नमः
ॐ याग्नब्रिह्ठे नमः
ॐ याग्नक्रिह्ठे नमः
ॐ याग्निने नमः
ॐ याग्नभूजे नमः
ॐ याग्नसाधानाया नमः
ॐ याग्नान्थाक्रिह्ठे नमः
ॐ याग्नगुह्याया नमः
ॐ अन्नाय नमः
ॐ अन्नादाय नमः
ॐ आत्मयोंये नमः
ॐ स्वयाम्जाताया नमः
ॐ वैखानाय नमः
ॐ सामगायनाय नमः
ॐ देवकी नन्दनाय नमः
ॐ स्थ्रास्ते नमः
ॐ क्शिथिशाया नमः
ॐ पापनाशनाय नमः
ॐ सम्खाब्रिह्ठे नमः
ॐ नन्दकिने नमः
ॐ चक्रिने नमः
ॐ सारंगा धन्वने नमः
ॐ गढ़ाधाराया नमः
ॐ राथान्गापानाये नमः
ॐ अक्षोभ्याय नमः
·ॐ सर्वप्रहरानायुधाया नमः
ॐ शर्माने नमः
ॐ विश्वरेतास्सेह नमः
ॐ प्रजाभवायअ नमः
ॐ अह्ने नमः
ॐ संवत्सराय नमः
ॐ व्यालाय नमः
ॐ प्रत्ययाय नमः
ॐ सर्वदर्शनाय नमः
ॐ अजय नमः
ॐ सर्वेश्वराय नमः
ॐ सिद्धाय नमः
ॐ सिद्धये नमः
ॐ सवादिये नमः
ॐ अच्युताय नमः
ॐ वृषाकपये नमः
ॐ अमेयात्मने नमः
ॐ सर्वयोगाविनिह्सृताया नमः
ॐ वासवे नमः
ॐ वसुमनसे नमः
ॐ सत्याय नमः
ॐ समात्मने नमः
ॐ सम्मिताय नमः
ॐ समाया नमः
ॐ अमोघाय नमः
ॐ पुन्दरीकक्षाया नमः
ॐ वृशाकर्माने नमः
ॐ वृशाक्रिताये नमः
ॐ रुद्राय नमः
ॐ बहुसिरसे नमः
ॐ बभ्रुवे नमः
ॐ विश्वयोंये नमः
ॐ सुचिस्रावासे नमः
ॐ अमृताय नमः
ॐ सस्वथ्स्थानावे नमः
ॐ वरारोहाय नमः
ॐ महातपसे नमः
ॐ सर्वगाय नमः
ॐ सर्वविद्वानावे नमः
ॐ विस्वक्सेनाया नमः
ॐ जनार्दनाय नमः
ॐ वेदाय नमः
ॐ वेदविदे नमः
ॐ अव्यन्गाया नमः
ॐ वेदान्गाया नमः
ॐ वेदविदे नमः
ॐ कवये नमः
ॐ लोकाद्याक्षाया नमः
ॐ सुरद्याक्षाया नमः
ॐ दर्माद्याक्षाया नमः
ॐ क्रिताक्रिताया नमः
ॐ चतुरात्मने नमः
ॐ छतुर्वुएहाय नमः
ॐ चतुर्द्रिश्ताया नमः
ॐ चतुर्भुजाय नमः
ॐ भ्राजिश्नावे नमः
ॐ भोजनाय नमः
ॐ भोक्त्रे नमः
ॐ सहिष्णवे नमः
ॐ जगदादिजाय नमः
ॐ अनाधाया नमः
ॐ विजयाय नमः
ॐ जेत्रे नमः
ॐ विस्वयोंये नमः
ॐ पुनर्वसवे नमः
ॐ उपेन्द्राय नमः
ॐ वामनाय नमः
ॐ प्राम्शावे नमः
ॐ अमोघाय नमः
ॐ शुचये नमः
ॐ ऊर्जिथाया नमः
ॐ अतीन्द्राय नमः
ॐ संग्रहाय नमः
ॐ सगाई नमः
ॐ द्रितात्माने नमः
ॐ नियमाये नमः
ॐ याम्हाया नमः
ॐ वेद्य - आया नमः
ॐ वैद्य - आया नमः
ॐ सदायोगिने नमः
ॐ विर्धने नमः
ॐ माधवाय नमः
ॐ मधवे नमः
ॐ अथिनिद्राया - आया नमः
ॐ महामाया - आया नमः
ॐ महोत्सहाया नमः
ॐ महाबलाय नमः
ॐ बुद्धेये नमः
ॐ महाविर्याया नमः
ॐ शक्तये नमः
ॐ महाधुठेया नमः
ॐ अनिर्धश्यवापुशे नमः
ॐ श्रीमते नमः
ॐ अमेयात्मने नमः
ॐ महाद्रिधाग्गे नमः
ॐ महेश्वसाया नमः
ॐ महिब्रतरे नमः
ॐ श्रीनिवासाया नमः
ॐ संथ्गाथ्ये नमः
ॐ अनिरुद्धाये नमः
· ॐ सुरनान्धाया नमः
ॐ गोविन्दाय नमः
ॐ गोविंदा पतये नमः
ॐ मरीचये नमः
ॐ दमनाय नमः
ॐ हंसाया नमः
ॐ सुपरानाया नमः
ॐ भुजगोथामाया नमः
ॐ हिरान्यनाभय नमः
ॐ सुतपसे नमः
ॐ पद्मनाभाय नमः
ॐ प्रजपथाये नमः
ॐ अमृत्यवे नमः
ॐ सर्वद्गाशो नमः
ॐ सिम्हाया नमः
ॐ संधोतरे नमः
ॐ संधिमाते नमः
ॐ स्थिताराया नमः
ॐ अजय नमः
ॐ दुर्मर्शनाया नमः
ॐ शास्त्रे नमः
ॐ विश्रुतात्मने नमः
ॐ सुररिगने नमः
ॐ गुरवे नमः ·
ॐ गुरुतामय नमः
ॐ धाम्ने नमः
ॐ सथ्याया नमः
ॐ सत्यापराकमाया नमः
ॐ निमिशाया नमः
ॐ अनिमिषाय नमः
ॐ स्त्र्गविनो नमः
ॐ वाचस्पतये उधार्धिये नमः
ॐ अग्रंये नमः
ॐ ग्रामण्ये नमः
ॐ श्रीमते नमः
ॐ न्याय्य नमः
ॐ नेत्रे नमः
ॐ समीर्नाया नमः
ॐ सहस्त्रम्रुधने नमः
ॐ विश्वात्मने नमः
ॐ सहस्त्राक्षाय नमः
ॐ सहस्त्रपदे नमः
ॐ आवर्थानाया नमः
ॐ निवृत्थात्माने नमः
ॐ संमृथय नमः
ॐ सम्प्रमार्दानाया नमः
ॐ अहस्संवार्ताकाया नमः
ॐ वह्निये नमः
ॐ अनिलाय नमः

ॐ धरानिधाराया नमः
ॐ सुप्रसदय नमः
ॐ प्रसंनातामाने नमः
ॐ विश्वध्रागे नमः
ॐ विश्वभुजे नमः
ॐ विभवे नमः
ॐ सत्कर्त्रे नमः
ॐ सत्कृत्य नमः
ॐ साधवे नमः
ॐ जहान्नुये नमः
ॐ नारायणाय नमः
ॐ नाराय नमः
ॐ असंख्येयेया नमः
ॐ अप्रमेयात्मने नमः
ॐ अजितःय नमः
ॐ कृष्णाय नमः
ॐ दृदय नमः
ॐ संकर्शनाया अच्युथाया नमः
ॐ वरुणाय नमः
ॐ वारुनाया नमः
ॐ वृक्षाय नमः
ॐ पुष्कराक्षाय नमः
ॐ महामनसे नमः
ॐ भगवते नमः
ॐ भगघ्ने नमः
ॐ अनंदिने नमः
ॐ वनमालिने नमः
ॐ हलायुधाय नमः
ॐ आदित्याय नमः
ॐ ज्योथिरादित्याया नमः
ॐ सहिष्णवे नमः
ॐ गतिसत्तामाया नमः
ॐ सुधन्वने नमः
ॐ खान्द्पराशावे नमः
ॐ धारुनाया नमः
ॐ द्रविनाप्रदय नमः
ॐ दिवस्प्रशे नमः
ॐ सर्वध्रिक्व्यासाया नमः
ॐ वाचास्पथाये अयोनिजाय नमः
ॐ त्रिसाम्ने नमः
ॐ सामगाय नमः
ॐ सामने नमः
ॐ निर्वानाया नमः
ॐ भेश्जाया नमः
ॐ भिषजे नमः
ॐ संयास्क्रिठे नमः
ॐ शमाय नमः
ॐ शान्थाया नमः
ॐ निश्ताया नमः
ॐ शान्थ्ये नमः
ॐ परयानाया नमः
ॐ सर्वतःचाक्शुशे नमः
ॐ अनीशाय नमः
ॐ शाशावात्स्थिराया नमः
ॐ भूशयाय नमः
ॐ भूशानाया नमः
ॐ भूतये नमः
ॐ विशोकाय नमः
ॐ शोकनाशनाय नमः
ॐ अर्चिष्मते नमः
ॐ अर्चिथाया नमः
ॐ कुम्भाय नमः
ॐ विशुद्धात्मने नमः
ॐ विशोधनाय नमः
ॐ अनिरुद्धाय नमः
ॐ अप्रथिराथाया नमः
ॐ प्रध्युम्नाया नमः
ॐ अमितविक्रमाय नमः
ॐ काल्नेमिनिगने नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ शौरये नमः
ॐ शूरजनेश्वराय नमः
ॐ त्रिलोकात्मने नमः
ॐ त्रिलोकेशाय नमः
ॐ केशवाय नमः
ॐ केशिगने नमः
ॐ हराए नमः
ॐ काम्देवाया नमः
ॐ कामपालाय नमः
ॐ कामिने नमः
ॐ कान्थाया नमः
ॐ क्रिथागामाया नमः
ॐ अनिर्धेश्यवापुशे नमः
ॐ विष्णवे नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ अनंथाया नमः
ॐ धनंजयाय नमः
ॐ ब्रह्मण्याय नमः
ॐ ब्रह्मकृते नमः
ॐ सद्भूथाये नमः
ॐ सत्परानाया नमः
ॐ शूरसेनाय नमः
ॐ यदुश्रेस्ताया नमः
ॐ संनिवासाया नमः
ॐ सुयामुनाया नमः
ॐ भूथावासाया नमः
ॐ वासुदेवाय नमः
ॐ सर्वासुनिलयाय नमः
ॐ अनलाय नमः
ॐ धर्पगने नमः
ॐ धर्पदाया नमः
ॐ ध्रुप्थाया नमः
ॐ धुर्ध्राया नमः
ॐ अपराजिताय नमः
ॐ विश्वमुर्थाये नमः
ॐ महामुर्थाये नमः
ॐ दीप्थामुर्थाये नमः
ॐ अमूर्थिमाते नमः
ॐ अनेकामुर्थाये नमः
ॐ अव्यक्थाया नमः
ॐ शाथामुर्थाये नमः
ॐ शताननाय नमः
ॐ एकाया नमः
ॐ नौकाय नमः
ॐ सवाया नमः
ॐ काय नमः
ॐ कसमे नमः
ॐ यसमे नमः
· ॐ तस्मे नमः
ॐ पदामानुत्तामाया नमः
ॐ लोकबन्धवे नमः
ॐ लोकनाथाय नमः
ॐ माधवाय नमः
ॐ भक्थावात्सलाया नमः
ॐ सुवार्नावार्नाया नमः
ॐ हेमान्गाया नमः
ॐ विशिष्टाया नमः
ॐ शुचये नमः
ॐ सिद्धार्थाय नमः
ॐ सिद्धासंकल्पाया नमः
ॐ सिद्धिदयाह नमः
ॐ सिद्धिसदानाहाया नमः
ॐ वृशाहिनेया नमः
ॐ वृशाभय नमः
ॐ विष्णवे नमः
ॐ वृश्पर्वाने नमः
ॐ वृशोदाराया नमः
ॐ वर्धनाय नमः
ॐ वर्धमनाया नमः
ॐ विविक्थाया नमः
ॐ श्रुथिसागाराया नमः
ॐ सुबुसजाया नमः
ॐ धुर्धराया नमः
ॐ वाग्मिने नमः
ॐ महेन्द्राय नमः
ॐ वसुदय नमः
ॐ वासवे नमः
ॐ नैकरुपाया नमः
ॐ ब्रिहद्रूपाया नमः
ॐ शिपिविश्ताया नमः
ॐ प्रकाशनाया नमः
ॐ ओजस्तेजोद्युथिधाराया नमः
ॐ प्रकाशात्मने नमः
ॐ प्रतापनाया नमः
ॐ रिद्धाया नमः
ॐ स्पश्ताक्षराया नमः
ॐ मन्त्राय नमः
ॐ चंद्रन्शावे नमः
ॐ भास्कराद्युथाये नमः
ॐ अम्रिताम्सूद्भावाया नमः
ॐ भानवे नमः
ॐ शशबिन्दवे नमः
ॐ सुरेश्वराय नमः
ॐ ओश्धाया नमः
ॐ जगत सतावे नमः
ॐ सत्याधार्मापराक्रमाया नमः
ॐ भूताभाव्यभावान्नाथाया नमः
ॐ पवनाय नमः
ॐ पावनाय नमः
ॐ अनलाय नमः
ॐ काम्धने नमः
ॐ कामाकृठे नमः
ॐ कान्थाया नमः
ॐ कामय नमः
ॐ कामाप्रदय नमः
ॐ प्रभवे नमः
ॐ युगढ़िकृठे नमः
ॐ युगावार्थाया नमः
· ॐ नैकमायाय नमः
ॐ महाशानाया नमः
ॐ अद्रिश्याया नमः
ॐ व्यक्तारूपाया नमः
ॐ सहस्त्रजिते नमः
ॐ अनंथाजिते नमः
ॐ इश्ताया नमः
· ॐ विशिष्टाया नमः ·
ॐ षिश्तेअस्तय नमः
ॐ शिकंदिने नमः
ॐ नहुशाया नमः
ॐ वृषाय नमः
ॐ क्रोध्गने नमः
ॐ क्रोधाक्रित्कर्ता नमः
ॐ विश्वबाहवे नमः
ॐ महिधाराया नमः
ॐ अच्युथाया नमः
ॐ प्रथिथाया नमः
ॐ प्राणाया नमः
ॐ प्रान्दाया नमः
ॐ वासवानुजय नमः
ॐ अपं निधये नमः
ॐ अधिश्तानाया नमः
ॐ अप्रमात्थाया नमः
ॐ प्रथिश्ताताया नमः
ॐ स्कन्दाय नमः
ॐ स्कन्दा धराया नमः
ॐ धुर्याय नमः
ॐ वरधाया नमः
ॐ वायु वहानाया नमः
ॐ वासुदेवाय नमः
ॐ ब्रिहत्भानावे नमः
ॐ आदिदेवाया नमः
ॐ पुरान्दराया नमः
ॐ अशोकाया नमः
ॐ तरानाया नमः
ॐ ताराया नमः
ॐ शुराया नमः
ॐ शौर्ये नमः
ॐ जनेश्वराय नमः
ॐ अनुकुलाया नमः
ॐ शातावार्त्ताया नमः
ॐ पद्मीने नमः
ॐ पद्मेनेबेक्षनाये नमः
ॐ पद्मनाभाय नमः
ॐ अरविन्दाक्षाया नमः
ॐ पद्मगार्भय नमः
ॐ सरीराभ्रिते नमः
ॐ महार्द्धेये नमः
ॐ श्रद्धया नमः
ॐ वृद्धात्मने नमः
ॐ महा क्षय नमः
ॐ गरुदाद्वाजय नमः
ॐ अतुल्य नमः
ॐ शरभाय नमः
ॐ भीमाय नमः
ॐ समयाग्नाया नमः
ॐ हविर्हरये नमः
ॐ सर्वलाक्षानालाक्षनाया नमः
ॐ लक्ष्मीवते नमः
ॐ समिथिन्जयाया नमः
ॐ विक्षराया नमः
ॐ रोहिताया नमः
ॐ मार्गाय नमः
ॐ हेतवे नमः
ॐ दामोदराय नमः
ॐ सहाय नमः
ॐ महिधाराया नमः
ॐ महाभागाय नमः
ॐ वेगावाठे नमः
ॐ अमिताशानाया नमः
ॐ उद्भावाया नमः

ॐ अच्युताय नमः
ॐ अनंताय नमः
ॐ गोविन्दाय नमः
ॐ केशवाय नमः
ॐ नारायणाय नमः
ॐ माधवाय नमः
ॐ गोविन्दाय नमः
ॐ विष्णवे नमः
ॐ मधुसूदनाय नमः
ॐ त्रिविक्रमाय नमः
ॐ वामनाय नमः
ॐ श्रीधराय नमः
ॐ रिशिकेशाया नमः
ॐ पद्मनाभाय नमः
ॐ दमोधाराया नमः
ॐ श्री वेदव्यास रिषिहि अनुष्टुप चंधः विश्वरूपो महाविष्णु देवता
ॐ विश्वस्मै नमः
ॐ विष्णवे नमः
ॐ वासत्काराया नमः
ॐ भूता भव्य भावत प्रभवे नमः
ॐ भूतकृते नमः
ॐ भूताभ्रिते नमः
ॐ भव्य नमः
ॐ भूतात्मने नमः
ॐ भूता भावनाया नमः
ॐ भूतात्मने नमः
ॐ परमात्मने नमः
ॐ मृक्थानाम परमय गतये नमः
ॐ अव्ययाय नमः
ॐ पुरुषाय नमः
ॐ साक्षीने नमः
ॐ क्षेत्रग्नाया नमः
ॐ अक्षराय नमः
ॐ योग्य नमः
ॐ योगनिदाम नेत्रे नमः
ॐ प्रधानापुरुशेश्वराया नमः
ॐ नारासिम्हावापुशे नमः
ॐ श्रीमते नमः
ॐ केशवाय नमः
ॐ पुरुशोत्तामाया नमः
ॐ सर्वस्मै नमः
ॐ शर्वाय नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ स्थाणवे नमः
ॐ भूतादये नमः
ॐ निधये अव्ययाय नमः
ॐ सम्भावाया नमः
ॐ भावनाया नमः
ॐ भर्त्रे नमः
ॐ प्रभावाय नमः
ॐ प्रभवे नमः
ॐ एअश्वराया नमः
ॐ स्वयम्भुवे नमः
ॐ शम्भवे नमः
ॐ आदित्याय नमः
ॐ पुष्कराक्षाय नमः
ॐ महास्वनाय नमः
ॐ अनादिनिदानाया नमः
ॐ धात्रे नमः
ॐ विधात्रे नमः
ॐ धातुरुत्तामाय नमः
ॐ अप्रमेयाय नमः
ॐ हृषीकेशाय नमः
ॐ पद्मनाभाय नमः
ॐ अमरप्रभवे नमः
ॐ विश्वकर्माने नमः
ॐ मानावे नमः
ॐ त्वास्त्रे नमः
ॐ स्थाविश्ताया नमः
ॐ स्थविराय ध्रुवाय नमः
ॐ अग्राह्ह्या नमः
ॐ शाश्वताय नमः
ॐ कृष्णाय नमः
ॐ लोहिताक्षाय नमः
ॐ प्रतर्दनाय नमः
ॐ प्रभूताय नमः
ॐ त्रिककुब्धाम्ने नमः
ॐ पविथ्राया नमः
ॐ मंगलाय परस्मै नमः
ॐ एअशानाया नमः
ॐ प्रानादाया नमः
ॐ प्राणाया नमः
ॐ ज्येश्ताया नमः
ॐ श्रेश्ताया नमः
ॐ प्रजापतये नमः
ॐ हिरान्यगार्भाया नमः
ॐ भूगर्भाय नमः
ॐ माधवाय नमः
ॐ मधुसूधानाया नमः
ॐ एअश्वराया नमः
ॐ विक्रमिने नमः
ॐ धन्विने नमः
ॐ मेधाविने नमः
ॐ विक्रमाय नमः
ॐ क्रमाय नमः
ॐ अनुत्तमाय नमः
ॐ दुर्रधार्शाया नमः
ॐ क्रिताग्नाया नमः
ॐ कृतये नमः
ॐ आत्मवते नमः
ॐ सुरेशाय नमः
ॐ शरानाया नमः

गुरू जीवित है तब भी गुरू, गुरू होते हैं और गुरू का शरीर नहीं होता तब भी गुरू गुरू ही होते हैं।
गुरू नजदीक होते हैं तब भी गुरू गुरू ही होते हैं और गुरू का शरीर दूर होता है तब भी गुरू दूर नहीं होते।
गुरू प्रेम करते हैं, डाँटते हैं, प्रसाद देते हैं, तब भी गुरू ही होते हैं और गुरू रोष भरी नजरों से देखते हैं, ताड़ते हैं तब भी गुरू ही होते हैं

लोग क्यों दुःखी हैं ? क्योंकि अज्ञान के कारण वे अपने सत्यस्वरूप को भूल गये हैं और अन्य लोग जैसा कहते हैं वैसा ही अपने को मान बैठते हैं | यह दुःख तब तक दूर नहीं होगा जब तक मनुष्य आत्म-साक्षात्कार नहीं कर लेगा

Friday, April 30, 2010

हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ

कुसंग से बचो, सत्संग करो
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दो नाविक थे। वे नाव द्वारा नदी की सैर करके सायंकाल तट पर पहुँचे और एक-दूसरे से कुशलता का समाचार एवं अनुभव पूछने लगे। पहले नाविक ने कहाः "भाई ! मैं तो ऐसा चतुर हूँ कि जब नाव भँवर के पास जाती है, तब चतुराई से उसे तत्काल बाहर निकाल लेता हूँ।" तब दूसरा नाविक बोलाः "मैं ऐसा कुशल नाविक हूँ कि नाव को भँवर के पास जाने ही नहीं देता।"

अब दोनों में से श्रेष्ठ नाविक कौन है ? स्पष्टतः दूसरा नाविक ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह भँवर के पास जाता ही नहीं। पहला नाविक तो किसी न किसी दिन भँवर का शिकार हो ही जायेगा।

इसी प्रकार सत्य के मार्ग अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले पथिकों के लिए विषय विकार एवं कुसंगरूपी भँवरों के पास न जाना ही श्रेयस्कर है।

अगर आग के नजदीक बैठोगे जाकर, उठोगे एक दिन कपड़े जलाकर।
माना कि दामन बचाते रहे तुम, मगर सेंक हरदम लाते रहे तुम।।

कोई जुआ नहीं खेलता,किंतु देखता है तो देखते-देखते वह जुआ खेलना भी सीख जायेगा और एक समय ऐसा आयेगा कि वह जुआ खेले बिना रह नहीं पायेगा।

इसी प्रकार अन्य विषयों के संदर्भ में भी समझना चाहिए और विषय विकारों एवं कुसंग से दूर ही रहना चाहिए।जो विषय एवं कुसंग से दूर रहते हैं,वे बड़े भाग्यवान हैं।

हरि ऊँ

Thursday, April 29, 2010

सांसारिक सहारे पत्थर की नाव है, हमे डुबो देंगे ! हमारा तो एक मात्र सहारा श्री हरि के चरण है ! सब सहारो को छोड़ने के पशचात श्री हरि के चरणों का आश्रय मिलेगा ! हमे दुःख क्यो मिलता है क्योंकि हमारा सहारा गलत है ! हम वासनाओं के व् आसकतियो के दास है और झूठे सहारो को पकड़े है ! हम संसार को ठग सकते है, परन्तु प्रभु को नही ! एक मात्र श्री हरि चरणों को पकडो ! केवल उनका आश्रय लो !

हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !

सबसे दुःखी और नासमझ दुनिया में कौन हैं ? जो यह समझते हैं कि हमारे ही मन के अनुसार सब कुछ हो। अरे ! तुम कोई ईश्वर तो हो नहीं। दूसरे लोग भी हैं दुनिया में, उनका भी मन है, उनकी भी मति है, उनकी भी गति है, उनके भी विचार हैं, सब तुम्हारे मन के विचार के गुलाम होकर कैसे रहेंगे.
सच्चे सदगुरु तो तुम्हारे स्वरचित सपनों की धज्जियाँ उड़ा देंगे। अपने मर्मभेदी शब्दों से तुम्हारे अंतःकरण को झकझोर देंगे। वज्र की तरह वे गिरेंगे तुम्हारे ऊपर। तुमको नया रूप देना है, नयी मूर्ति बनाना है, नया जन्म देना है न ! वे तरह-तरह की चोट पहुँचायेगे, तुम्हें तरह-तरह से काटेंगे तभी तो तुम पूजनीय मूर्ति बनोगे। अन्यथा तो निरे पत्थर रह जाओगे।

इस बेरंग ज़िंदगी की तस्वीर तुम हो
सच्चे सदगुरु मेरे ज़मीर तुम हो
कबूल लो यह इनायत् मेरी
मेरी ज़िंदगी का आसरा तुम हो***

भूल से उत्पन्न हुई असावधानी और असावधानी से उत्पन्न एवं पोषित दोषों को मिटाने में अपने को असमर्थ स्वीकार करना और नित्य प्राप्त,स्वत: सिद्ध निर्दोषता से निराश होना मानव-जीवन का घोर अनादर है।यह नियम है कि जो अपना आदर नहीं करता,उसका कोई आदर नहीं करता।अपने आदर का अर्थ दूसरों का अनादर नहीं है,अपितु दूसरों के अनादर से तो अपना ही अनादर होने लगता है;क्योंकि जो किसी को भी दोषी मानता है,वह स्वयं निर्दोष नहीं हो सकता।

Saturday, March 06, 2010

********* SRIMAD BHAGVAD GITA (11.44 - 11.46) *********

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं- प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।44।।

अतएव हे प्रभो ! मैं शरीर को भलीभाँति चरणों में निवेदित कर, प्रणाम करके, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करता हूँ। हे देव ! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्नी के अपराध सहन करते हैं – वैसे ही आप भी मेरे अपराध सहन करने योग्य
हैं।(44)

Therefore, bowing down, prostrating my body, I crave Thy forgiveness, O adorable Lord! As a father forgives his son, a friend his (dear) friend, a lover his beloved, even so shouldst Thou forgive me, O God!

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूपं- प्रसीद देवेश जगन्निवास।।45।।

मैं पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है, इसलिए आप उस अपने चतुर्भुज विष्णुरूप को ही मुझे दिखलाइये ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! प्रसन्न होइये।(45)

I am delighted, having seen what has never been seen before; and yet my mind is distressed with fear. Show me that (previous) form only, O God! Have mercy, O God of gods! O abode of the universe!

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त- मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।46।।

मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किये हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूँ, इसलिए हे विश्वस्वरूप ! हे सहस्रबाहो ! आप उसी चतुर्भुजरूप से प्रकट होइये।(46)

I desire to see Thee as before, crowned, bearing a mace, with the discus in hand, in Thy former form only, having four arms, O thousand-armed, Cosmic Form (Being)!
गुरु वचन :

ईश्वरीय शक्तियाँ तुम्हारे द्वारा काम करने को तत्पर हैं। तुम क्यों बेईमानी कर रहे हो ? क्यों अपेक्षाएँ कर रहे हो ? क्यों सिकुड़ रहे हो ? क्यों मन के गुलाम बन रहे हो ? मन की कल्पनाओं के पीछे भाग रहे हो ? मारो ॐकार की गदा...। अपेक्षाओं को चूर... चूर कर दो। वासनाओं को कुचल डालो। फिर देखो, क्या रहस्य खुलने लगते हैं !

होली यानी जो हो... ली.... कल तक जो होना था, वह हो लिया। आओ, आज एक नयी जिंदगी की शुरुआत करें। जो दीन-हीन हैं, शोषित है, उपेक्षित है, पीड़ित है, अशिक्षित है, समाज के उस अंतिम व्यक्ति को भी सहारा दें। जिंदगी का क्या भरोसा ! कुछ काम ऐसे कर चलो कि हजारों दिल दुआएँ देते रहें... चल पड़ो उस पथ पर, जिस पर चलकर कुछ दीवाने प्रह्लाद बन गये। करोगे न हिम्मत ! तो उठो और चल पतो उठो और चल पड। तो उठो और चल पड़ो प्रभुप्राप्ति, प्रभुसुख, प्रभुज्ञान, प्रभुआनंद प्राप्ति के पुनीत पथ पर ।

संसार के सुख पाने की इच्छा दोष ले आती है और आत्मसुख पाने की इच्छा सदगुण ले आती है। ऐसा कोई दुर्गुण नहीं जो संसार के भोग की इच्छा से पैदा न हो। व्यक्ति बुद्धिमान हो, लेकिन भोग की इच्छा उसमें दुर्गुण ले आयेगी। चाहे कितना भी बुद्धू हो, लेकिन ईश्वर प्राप्ति की इच्छा उसमें सदगुण ले आएगी।
नारायण .... नारायण