Friday, April 30, 2010

हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ

कुसंग से बचो, सत्संग करो
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दो नाविक थे। वे नाव द्वारा नदी की सैर करके सायंकाल तट पर पहुँचे और एक-दूसरे से कुशलता का समाचार एवं अनुभव पूछने लगे। पहले नाविक ने कहाः "भाई ! मैं तो ऐसा चतुर हूँ कि जब नाव भँवर के पास जाती है, तब चतुराई से उसे तत्काल बाहर निकाल लेता हूँ।" तब दूसरा नाविक बोलाः "मैं ऐसा कुशल नाविक हूँ कि नाव को भँवर के पास जाने ही नहीं देता।"

अब दोनों में से श्रेष्ठ नाविक कौन है ? स्पष्टतः दूसरा नाविक ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह भँवर के पास जाता ही नहीं। पहला नाविक तो किसी न किसी दिन भँवर का शिकार हो ही जायेगा।

इसी प्रकार सत्य के मार्ग अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले पथिकों के लिए विषय विकार एवं कुसंगरूपी भँवरों के पास न जाना ही श्रेयस्कर है।

अगर आग के नजदीक बैठोगे जाकर, उठोगे एक दिन कपड़े जलाकर।
माना कि दामन बचाते रहे तुम, मगर सेंक हरदम लाते रहे तुम।।

कोई जुआ नहीं खेलता,किंतु देखता है तो देखते-देखते वह जुआ खेलना भी सीख जायेगा और एक समय ऐसा आयेगा कि वह जुआ खेले बिना रह नहीं पायेगा।

इसी प्रकार अन्य विषयों के संदर्भ में भी समझना चाहिए और विषय विकारों एवं कुसंग से दूर ही रहना चाहिए।जो विषय एवं कुसंग से दूर रहते हैं,वे बड़े भाग्यवान हैं।

हरि ऊँ

Thursday, April 29, 2010

सांसारिक सहारे पत्थर की नाव है, हमे डुबो देंगे ! हमारा तो एक मात्र सहारा श्री हरि के चरण है ! सब सहारो को छोड़ने के पशचात श्री हरि के चरणों का आश्रय मिलेगा ! हमे दुःख क्यो मिलता है क्योंकि हमारा सहारा गलत है ! हम वासनाओं के व् आसकतियो के दास है और झूठे सहारो को पकड़े है ! हम संसार को ठग सकते है, परन्तु प्रभु को नही ! एक मात्र श्री हरि चरणों को पकडो ! केवल उनका आश्रय लो !

हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !

सबसे दुःखी और नासमझ दुनिया में कौन हैं ? जो यह समझते हैं कि हमारे ही मन के अनुसार सब कुछ हो। अरे ! तुम कोई ईश्वर तो हो नहीं। दूसरे लोग भी हैं दुनिया में, उनका भी मन है, उनकी भी मति है, उनकी भी गति है, उनके भी विचार हैं, सब तुम्हारे मन के विचार के गुलाम होकर कैसे रहेंगे.
सच्चे सदगुरु तो तुम्हारे स्वरचित सपनों की धज्जियाँ उड़ा देंगे। अपने मर्मभेदी शब्दों से तुम्हारे अंतःकरण को झकझोर देंगे। वज्र की तरह वे गिरेंगे तुम्हारे ऊपर। तुमको नया रूप देना है, नयी मूर्ति बनाना है, नया जन्म देना है न ! वे तरह-तरह की चोट पहुँचायेगे, तुम्हें तरह-तरह से काटेंगे तभी तो तुम पूजनीय मूर्ति बनोगे। अन्यथा तो निरे पत्थर रह जाओगे।

इस बेरंग ज़िंदगी की तस्वीर तुम हो
सच्चे सदगुरु मेरे ज़मीर तुम हो
कबूल लो यह इनायत् मेरी
मेरी ज़िंदगी का आसरा तुम हो***

भूल से उत्पन्न हुई असावधानी और असावधानी से उत्पन्न एवं पोषित दोषों को मिटाने में अपने को असमर्थ स्वीकार करना और नित्य प्राप्त,स्वत: सिद्ध निर्दोषता से निराश होना मानव-जीवन का घोर अनादर है।यह नियम है कि जो अपना आदर नहीं करता,उसका कोई आदर नहीं करता।अपने आदर का अर्थ दूसरों का अनादर नहीं है,अपितु दूसरों के अनादर से तो अपना ही अनादर होने लगता है;क्योंकि जो किसी को भी दोषी मानता है,वह स्वयं निर्दोष नहीं हो सकता।