Thursday, April 29, 2010

सच्चे सदगुरु तो तुम्हारे स्वरचित सपनों की धज्जियाँ उड़ा देंगे। अपने मर्मभेदी शब्दों से तुम्हारे अंतःकरण को झकझोर देंगे। वज्र की तरह वे गिरेंगे तुम्हारे ऊपर। तुमको नया रूप देना है, नयी मूर्ति बनाना है, नया जन्म देना है न ! वे तरह-तरह की चोट पहुँचायेगे, तुम्हें तरह-तरह से काटेंगे तभी तो तुम पूजनीय मूर्ति बनोगे। अन्यथा तो निरे पत्थर रह जाओगे।

इस बेरंग ज़िंदगी की तस्वीर तुम हो
सच्चे सदगुरु मेरे ज़मीर तुम हो
कबूल लो यह इनायत् मेरी
मेरी ज़िंदगी का आसरा तुम हो***

भूल से उत्पन्न हुई असावधानी और असावधानी से उत्पन्न एवं पोषित दोषों को मिटाने में अपने को असमर्थ स्वीकार करना और नित्य प्राप्त,स्वत: सिद्ध निर्दोषता से निराश होना मानव-जीवन का घोर अनादर है।यह नियम है कि जो अपना आदर नहीं करता,उसका कोई आदर नहीं करता।अपने आदर का अर्थ दूसरों का अनादर नहीं है,अपितु दूसरों के अनादर से तो अपना ही अनादर होने लगता है;क्योंकि जो किसी को भी दोषी मानता है,वह स्वयं निर्दोष नहीं हो सकता।

No comments: