Thursday, December 31, 2009

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशोऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया।।

'हे अर्जुन ! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।'
(भगवद् गीताः 18.61)
भगवान कहते हैं कि सबके हृदय में मैं ज्यों का त्यों विराजमान हूँ। लेकिन सब मयारूपी यंत्र से भ्रमित हो रहे हैं।
माया का अर्थ है धोखा। धोखे के कारण हम दीन-हीन हुए जा रहे हैं। 'हे धन ! तू कृपा कर.... सुख दे। हे कपड़े ! तू सुख दे। हे गहने ! तू सुख दे।'

ब्रह्मलोक में वह सुख नहीं जो ब्रह्म परमात्मा के साक्षात्कार में है।
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशेभ्यः।
उस देव को जानने से जीव सारे पाशों से, सारी जंजीरों से मुक्त हो जाता है।
मनुष्य जन्म में ऐसी मति मिली है कि इससे वह भूत का, भविष्य का चिन्तन-विचार कर सकता है। पशु तो कुछ समय के बाद अपने माँ-बाप को भी भूल जाते हैं, भाई-बहन को भी भूल जाते है और संसार व्यवहार कर लेते हैं। मनुष्य की मति में स्मृति रहती है।

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