Friday, May 14, 2010

संस्था समाचार :

राजस्थान के छोटे से शहर पीपाड में २८ व २९ जुलाई को सत्संग संपन्न हुआ. इस शहर में पूज्यश्री का प्रथम आगमन था . यहाँ पिछले तीन-चार साल से भारी अकाल था . न जाने क्यों इस क्षेत्र से मेघ देवता नाराज थे . लोगों ने पूज्यश्री से प्रार्थना की . सत्संग के दौरान उपस्थित श्रद्धालु श्रोताओं से पूज्यश्री न पूछा : “बरसात चाहिए?” सभी ने एक स्वर में हामी भरी और समस्त सत्संग मंडप में सन्नाटा छा गया . पूज्यश्री मौन हो गए . बारिश लाने के मंत्र का स्मरण किया . कुछ ही क्षणों में तेज बारिश शुरू हो गयी, बारिश के इंतज़ार में मुरझाये स्थानीय लोगों के चेहरों पर खुशी छा गयी . तेज बरसात देखकर लोग चकित हो गए, नाचने लगे .

प्रार्थना और मंत्र के बल का प्रत्यक्ष दर्शन करके ईश्वर के प्रति लोगों की आस्था बढ़ी, आनंद बढ़ा . पूज्य बापूजी के समक्ष प्रत्यक्ष दैवी लीला को देखकर लोग निहाल हो गए . इसके हजारों प्रत्यक्षदर्शी रहे . भारतीय संस्कृति का मंत्र-विज्ञान अभी भी सक्षम है. शुद्ध ह्रदय व श्रद्धावान मंत्रशक्ति को जाग्रत कर लेते हैं और घटना घाट जाती है . जैसे १९५६ में राजगोपालाचारी ने वर्षा करा दी .

क्षेत्र में बस एक ही चर्चा आम हो गयी, सभी की जुबान पर यही सुनाई दे रहा था कि “बापू आये, बरसात लाये .”

स्रोत्र : पेज ३३, ऋषि प्रसाद, सितम्बर २००६, वर्ष : १७, अंक : १६५
The mind is the reason behind a person's bondage or salvation. Pious and benevolent resolves and actions purify the mind, remove all faults and lead to final salvation, says Lilashahji in a discourse.

The same mind, when it becomes impure by impious resolves and actions, promotes insentience and binds one to bondage of this world.

Take your mind to task everyday! Constantly counsel your mind. "O restless mind! Now be quiet and steady. Why do you disturb me by wandering all the time? Time and again you run after sense pleasures and worldly relations, seeking company in relationships but don’t you know that they are short-lived? You have been forced to abandon them in all of your previous lives and will have to abandon them in this life as well. So immerse yourself in meditation of your True Self that is always with you, that is Bliss Supreme.”

The mind is deceptive. Never trust it. Keep a constant watch to see whether the mind is following your commands. Keep a vigil on its activities at all times. You have to always be ready to discipline the mind with the stick of insightful discrimination, ready to take preventive action and restrain the mind from engaging in any act of transgression against established principles and time-tested social norms.

Never allow the mind free rein because it is an incredible treasure house of tremendous powers. It is such a fast horse as can easily and quickly simply gallop towards its goal if only given good direction by keeping it in control. Without restraint, it is most likely to go berserk and throw you into a pile of thorny bushes. Always keep a tight vigil on the mind. Do not give it free time at all; otherwise it will suck you into undesirable activity. As the saying goes, 'An idle mind is a devil's workshop'. Therefore, always keep the mind engaged in some worthwhile pursuit, something that requires application of the mind.

Ruminate on the Self, study the scriptures, listen to the discourses of the wise and those with positive knowledge and engage yourself in chanting the name of the Supreme Being. Never allow the mind to run free. And when it strays, as it frequently will, prod it and rein it back. Just as a large animal can be controlled with a goad, the mind will also come under your complete control with constant monitoring and discipline. The mind has no sovereign power of its own; you yourself have created it. It is your own child whom you have spoilt with excessive pampering. Insightful restraint is the key to keep a loved one from straying. A sapling must be protected until it grows and turns into a tree. Similarly, your constant vigil is required to protect the mind from going berserk.

Towards accomplishing this, the following experiment could prove instructive: Lie down flat on a blanket. Leave the body loose and relaxed. Keep yourself completely calm. Forget the whole world and when you’ll think with a tranquil mind, you will see that all events of happiness and sorrow are the results of your own past deeds; and friends or foes are only instrumental in bringing to you what is your due. When you are awake, the world exists; and when you are asleep, it ceases to exist. In effect, the world is unreal; it’s like a dream. This is the Truth and this is ultimate reality.

As the mind comes to realise the Truth, it will become calm and silent. A silent and serene mind is always pure.

Lilashahji is Asaram Bapu’s guru. www.ashram.org
source: http://timesofindia.indiatimes.com/Life/Spirituality/Speaking-Tree/Mind-Good-servant-bad-master/articleshow/5920884.cms
भजन : भगवत अवतार

जब – जब भी धरती पर हुई है धर्म की हानि
अवतार लेकर आते हैं भगवान हे प्राणी

एक समय का जिक्र करें, जब कंस ने हाहाकार किया
मार दिया निर्मल शिशुओं को, बहन पे अत्याचार किया
हुआ कृष्ण अवतार, रोकी उसकी मनमानी -२
अवतार लेकर आते हैं भगवान हे प्राणी

एक बालक प्रहलाद हुआ, जो भक्त था भगवान का
हिरंन्यकुश ने किया प्रताड़ित, भोग्य बना अपमान का
हुआ नरसिह अवतार, और मारा अभिमानी -२
अवतार लेकर आते हैं भगवान हे प्राणी

“शुभ” सेवक की गुरु चरणों में, विनती बारम्बार है
सत्संग – दर्शन मिले निरंतर, अर्ज यही हर बार है
क्षमा करो इस दास की, मेरे “बापू” नादानी -२

रचना: अभिषेक मैत्रेय “शुभ”

Thursday, May 13, 2010

जब दुःख आयें तब बड़ों की शरण लेनी चाहिए। किसी न किसी की शरण लिये बिना हम लोग जी नहीं सकते, टिक नहीं सकते। दुर्बल को बलवान की शरण लेनी चाहिए।
बलवान कौन है ? जो दण्ड-बैठक करता है वह बलवान है ? जिसके पास सारे विश्व की कुर्सियाँ अत्यंत छोटी पड़ जाती हैं वह सर्वेश्वर सर्वाधिक बलवान है। तुम उस बलवान की शरण चले जाओ। बलवान की शरण गाँधीनगर में नहीं, बलवान की शरण दिल्ली में नहीं, किसी नगर में नहीं बल्कि वह तुम्हारे दिल के नगर में सदा के लिए मौजूद है। सच्चे हृदय से उनकी शरण चले गये तो तुरन्त वहाँ से प्रेरणा, स्फूर्ति और सहारा मिल जाता है। वह सहारा कइयों को मिला है। हम लोग भी वह सहारा पाने के लिए तत्पर हैं इसीलिए सत्संग में आ पहुँचे हैं।
तुम कब तक बाहर के सहारे लेते रहोगे ? एक ही समर्थ का सहारा ले लो। वह परम समर्थ परमात्मा है। उससे प्रीति करने लग जाओ। उस पर तुम अपने जीवन की बागडोर छोड़ दो। तुम निश्चिन्त हो जाओगे तो तुम्हारे द्वारा अदभुत काम होने लगेंगे परन्तु राग तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने देगा। जब राग तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने दे तब सोचोः
'हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !

एक सेठ के हाथ में एक गुलदस्ता था। उसने उसे एक संत को दे दिया। संत गुलदस्ता देखने लगे। उसमें प्रत्येक फूल को देखकर वे प्रसन्न हुए और उसकी सुगन्ध की प्रशंसा करने लगे। सेठ सोचने लगा कि 'महाराज तो गुलदस्ते में ही मग्न हो गये, देने वाले की ओर देखते तक नहीं।' बड़ी देर हुई तो सेठ से रहा नहीं गया। उसने कहाः "स्वामी जी ! जरा मेरी ओर भी देखिये। मुझे आपसे कुछ जानना है।" सेठ की बात सुनकर संत ने गुलदस्ता रख दिया और बोलेः "सेठ जी ! यह तो मैं दृष्टांत दे रहा था। सेठों का भी सेठ परमात्मा है और ये सांसारिक पदार्थ हैं गुलदस्ते के फूल जो उसी ने हमें दिये हैं किंतु हम इनमें इतने लीन हो गये कि उस दाता की याद ही नहीं आती।"

जैसे स्वप्न की सृष्टि एक काल्पनिक बगीचा है, उसी प्रकार यह जाग्रत जगत भी मन की कल्पना ही है। सपने की सृष्टि उस समय सत्य लगती है परंतु जागने पर कुछ भी नहीं रहता, वैसे ही आत्मा का ज्ञान होने पर जाग्रत जगत भी स्वप्नवत् हो जाता है। संसार में जो कुछ भी सौन्दर्य एवं आनंद दिखायी पड़ती है, उसका कारण अज्ञान है। शरीर और संसार के पदार्थ नाशवान हैं। एक आत्मा ही सत्, चित्त और आनंदस्वरूप है। जब आप आम खाते हो तो आपको वह मीठा लगता है और समझते हो कि उससे आनंद मिल रहा है। यह नासमझी है, अज्ञान है।

आनंद आम से नहीं मिल रहा अपितु आम खाते समय उसके स्वाद में मन स्थिर हो गया, चित्तवृत्तियाँ थोड़ी शांत अथवा कम हो गयीं तभी वहाँ से आनंद मिला अर्थात् आनंद मिला मन के स्थिर होने से। परंतु यह स्थिरता क्षणिक है। थोड़ी देर बाद फिर से खटपट शुरू हो जायेगी और आम खाने की तृष्णा भी बढ़ जायेगी, मन आपको आम का गुलाम बना देगा। किंतु जब आत्मरस मिलता है, भगवद् भक्ति तथा भगवद् ज्ञान का अखूट आनंद मिलता है तब मन उसमें स्थिर ही अपितु लीन भी हो जाता है। जब मन थोड़ी देर के लिए आम में स्थिर हुआ तो इतना आनंद मिला, यदि उस सच्चिदानंद में ही लीन हो जाय तो वह आनंद कैसा होगा ! उसका तो वाणी वर्णन ही नहीं कर सकती। उसको हम पूरी तरह से शब्दों के द्वारा नहीं समझा सकते। उसको तो अनुभव के द्वारा ही जान सकते हैं और उसका अनुभव होता है साधना, विवेक तथा वैराग्य द्वारा।

स्रोत्र : http://www.facebook.com/note.php?note_id=421587272194&comments#!/note.php?note_id=422216257194&comments

Wednesday, May 12, 2010

1000 names of LORD VISHNU DO JAP ON EKADASHI VISHNU SHAHSTRA NAMAVALI IN HINDI

ॐ क्शोबनाया नमः
ॐ देवाय नमः
ॐ श्रीगार्बया नमः
ॐ परमेश्वराय नमः
ॐ करनाय नमः
ॐ करतरे नमः
ॐ विकारातरे नमः
ॐ गहनाय नमः
ॐ गुहाया नमः
ॐ व्यवसायाय नमः
ॐ व्यवस्थानाया नमः
ॐ सम्स्थानाया नमः
ॐ स्थानाधाया नमः
ॐ ध्रुवाय नमः
ॐ परर्द्धये नमः
ॐ परमस्पस्ताया नमः
ॐ ठुस्ताया नमः
ॐ पुश्ताया नमः
ॐ सुबेक्षनाया नमः
ॐ रामय नमः
ॐ विरामाय नमः
ॐ विर्जय नमः
ॐ मार्गाय नमः
ॐ नीय नमः
ॐ न्याय नमः
ॐ अन्याय नमः
ॐ वीर्य नमः
ॐ शक्तिमता श्रेश्ताया नमः
ॐ धर्मय नमः
ॐ धर्माविदुत्तामाया नमः
ॐ वैकुंताया नमः
ॐ पुरुषाय नमः
ॐ प्राणाया नमः
ॐ प्रान्दाया नमः
ॐ प्राणवाय नमः
ॐ प्रिथ्वे नमः
ॐ हिरान्यगार्भय नमः
ॐ शत्रुग्नाया नमः
ॐ व्याप्थाया नमः
ॐ वायवे नमः
ॐ अधोक्षजाय नमः
ॐ रितुह्वे नमः
ॐ सुदर्शनाय नमः
ॐ कालाय नमः
ॐ परमेस्तिने नमः
ॐ परिग्रहाय नमः
ॐ उग्राय नमः
ॐ संवत्सराय नमः
ॐ दक्षाय नमः
ॐ विश्रामाय नमः
ॐ विश्वदाक्षिनाया नमः
ॐ विस्थाराया नमः
ॐ स्थावारास्थानावे नमः
ॐ प्रमानाया नमः
ॐ बिजय अव्ययाय नमः
ॐ अर्थाय नमः
ॐ अनर्थाय नमः
ॐ महाकोशाय नमः
ॐ महाभोगाय नमः
ॐ महाधनाय नमः
ॐ अनिर्विन्नाहाया नमः
ॐ स्थाविस्ताया नमः
ॐ अभुवे नमः
ॐ धर्मवुपाया नमः
ॐ महामकाया नमः
ॐ नक्षत्रनेमये नमः
ॐ नक्शाथ्रिने नमः
ॐ क्षमाया नमः
ॐ क्शामाया नमः
ॐ समिहनाया नमः
ॐ याग्नाया नमः
ॐ इज्याय नमः
ॐ महेज्याय नमः
ॐ क्रिथावे नमः
ॐ सत्राय नमः
ॐ सता गाथाये नमः
ॐ सर्वधार्शिने नमः
ॐ विभुक्थात्माने नमः
ॐ सर्वग्नाया नमः
ॐ ज्नानामुत्थामाया नमः
ॐ सुव्रथाया नमः
ॐ सुमुखाय नमः
ॐ सूक्ष्माय नमः
ॐ सुघोशाया नमः
ॐ सुखदाय नमः
ॐ सुह्रिद्ये नमः
ॐ मनोहराय नमः
ॐ जितक्रोधाय नमः
ॐ वीराभाहावे नमः
ॐ विधार्नाया नमः
ॐ स्वापनाय नमः
ॐ स्ववशाय नमः
ॐ व्यापिने नमः
ॐ नैकात्मने नमः
ॐ नैककर्मक्रिहते नमः
ॐ वत्सराया नमः
ॐ वत्सलाय नमः
ॐ वाथ्सिने नमः
ॐ रत्नागार्बहाया नमः
ॐ धनेश्वराया नमः
ॐ धर्मगुपे नमः
ॐ धर्मक्रिहते नमः
ॐ धर्मिने नमः
ॐ साथै नमः
ॐ असते नमः
ॐ क्षराय नमः
ॐ अक्षराय नमः
ॐ अविज्नातरे नमः
ॐ सहस्थ्रान्श्वे नमः
ॐ विधात्रे नमः
ॐ क्रिह्थालाक्षनाया नमः
ॐ घबस्थिनेय्माये नमः ·
ॐ सत्त्वस्थाय नमः
ॐ सिम्हाया नमः
ॐ भूथामाहेश्वराया नमः
ॐ आदिदेवाय नमः
ॐ महादेवाय नमः
ॐ देवेशाय नमः
ॐ देव्ब्रिहद्गुरावे नमः
ॐ उत्ताराय नमः
ॐ गोपथाये नमः
ॐ गोप्त्रे नमः
ॐ ज्नानागाम्याया नमः
ॐ पुरातनाय नमः
ॐ शरीराभ्रुथाभ्रुठे नमः
ॐ भोख्थ्रे नमः
ॐ कपीन्द्राय नमः
ॐ भुरिधाक्षिनाया नमः
ॐ सोमपाय नमः
ॐ अम्रुथापाया नमः
ॐ सोमाय नमः
ॐ पुरुजिते नमः
ॐ पुरुसत्तामाया नमः
ॐ विन्याया नमः
ॐ जयाय नमः
ॐ सत्यसंधाय नमः
ॐ दाशाही नमः
ॐ सात्वता पतये नमः
ॐ जीवाय नमः
ॐ विनायिथासाक्षिने नमः
ॐ मुकुन्दाय नमः
ॐ अमितविक्रमाय नमः
ॐ अम्भोनिधये नमः
· ॐ अनंथात्माने नमः
ॐ महोदाधिशयाया नमः
ॐ अन्थाकाया नमः
ॐ अजय नमः
ॐ महाहाही नमः
ॐ स्वाभाव्याय नमः
ॐ जितामित्राय नमः
ॐ प्रमोदनाय नमः
ॐ आनंदाय नमः
ॐ नन्दनाय नमः
ॐ नन्दाय नमः
ॐ सत्याधार्माने नमः
ॐ त्रिविक्रमाय नमः
ॐ महर्षये कपिलाचाराया नमः
ॐ क्रिथाग्नाया नमः
ॐ मेदिनिपताये नमः
ॐ त्रिपदाय नमः
ॐ त्रिदशाध्यक्षाय नमः
ॐ महासृन्गाया नमः
ॐ क्रुथान्थ्क्रिठे नमः
ॐ महावाराहाया नमः
ॐ गोविन्दाय नमः
ॐ सुशेनाया नमः
ॐ कनाकान्गादिने नमः
ॐ गुह्याय नमः
ॐ गबिराया नमः
ॐ गहनाय नमः
ॐ गुप्ताय नमः
ॐ चक्रगढ़ाधाराया नमः
ॐ वेधसे नमः
ॐ स्वान्घाया नमः
ॐ शुभान्गाया नमः
ॐ शान्तिदाय नमः
ॐ श्थ्रास्ते नमः
ॐ कुमुदाय नमः
ॐ कुवालेशायाया नमः
ॐ गोहिथाया नमः
ॐ गोप्थाये नमः
ॐ गोप्त्रे नमः
ॐ वृशाभाक्षाया नमः
ॐ अनिवार्थाने नमः
ॐ निवृथात्माने नमः
ॐ संक्षेप्त्हरे नमः
ॐ क्षेमाक्रिठे नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ श्रीवत्सवक्षसे नमः
ॐ श्रीवासाय नमः
ॐ श्रीपतये नमः
ॐ श्रीमाता वराय नमः
ॐ श्रीदाय नमः
ॐ श्रीशाय नमः
ॐ श्रीनिवासाय नमः
ॐ श्रीनिधये नमः
ॐ श्रीविभावनाय नमः
ॐ श्रीधराय नमः
ॐ श्रीकराय नमः
ॐ श्रेयसे नमः
ॐ श्रीमते नमः
· ॐ लोक्थ्रयाश्रयाया नमः
ॐ स्वक्षाय नमः
ॐ स्वन्गाया नमः
ॐ शतानन्दाय नमः
ॐ नन्दये नमः
ॐ ज्योथिर्गानेश्वराया नमः
ॐ विजीतात्माने नमः
ॐ विधेयात्माने नमः
ॐ सत्कीर्थाये नमः
ॐ चिन्नासंशायाया नमः
ॐ उधीर्नाया नमः
ॐ ब्रह्माने नमः
ॐ ब्रह्मविवर्धनाय नमः
· ॐ ब्रह्मविधे नमः
ॐ ब्रह्मनाया नमः
ॐ ब्रह्मिने नमः
ॐ ब्रह्मज्नाया नमः
ॐ ब्राह्मनाप्रियाया नमः
ॐ महाक्रमाय नमः
ॐ महकर्माने नमः
ॐ महातेजसे नमः
ॐ महोर्गाया नमः
ॐ महक्रिथावे नमः
ॐ महायज्वने नमः
ॐ महायाग्नाया नमः
ॐ महाहविषे नमः
ॐ स्थाव्याया नमः
ॐ स्थावाप्रियाया नमः
ॐ स्थोथ्राया नमः
ॐ स्थुथाये नमः
ॐ स्थोथ्रे नमः
ॐ रणप्रियाय नमः
ॐ पूर्णाय नमः
ॐ पुरयिथ्रे नमः
ॐ पुण्याय नमः
ॐ पुन्यकीर्थाये नमः
ॐ अनामयाय नमः
ॐ मनोजवाय नमः
ॐ थीर्थाकराया नमः
ॐ वसुरेथासे नमः
ॐ वसुप्रदाय नमः
ॐ वसुप्रदाय नमः
ॐ वासुदेवाय नमः
ॐ वासवे नमः
ॐ वसुमनसे नमः
ॐ हविषे नमः
ॐ सद्गतये नमः
ॐ सत्क्रिथाये नमः
ॐ सत्ताये नमः
ॐ वरान्गाया नमः
ॐ चंदानान्गादिने नमः
ॐ वीरागने नमः
ॐ विशामाया नमः
ॐ शून्याय नमः
ॐ ढूथाशिशे नमः
ॐ अचलाय नमः
ॐ चलाया नमः
ॐ अमानिने नमः
ॐ मानदाय नमः
ॐ मान्याय नमः
ॐ लोकस्वामिने नमः
ॐ त्रिलोकध्रिगे नमः
ॐ सुमेधसे नमः
ॐ मेधजाय नमः
ॐ धन्याय नमः
ॐ सत्यमेधसे नमः
ॐ धराधराय नमः
ॐ तेजोवृशाया नमः
ॐ ध्युथिधाराया नमः
ॐ सर्वशाश्त्रब्रिह्ता वराय नमः
ॐ प्रग्रहाय नमः
ॐ निग्रहाय नमः
ॐ व्यग्राय नमः
ॐ नैकश्रीन्गाया नमः
ॐ गदाग्रिजाया नमः
ॐ चाठुर्मुर्थाये नमः
ॐ चाठुर्बहिवे नमः
ॐ चाठुव्युहाया नमः
ॐ चाठुर्गाथाये नमः
ॐ चाठुरात्माने नमः
ॐ चाठुर्भावाया नमः
ॐ चाठुर्वेदाविधे नमः
ॐ एकपदे नमः
ॐ समावार्थाया नमः
ॐ निवृत्थात्माने नमः
ॐ धुर्ज्याया नमः
ॐ धुराथिक्रमाया नमः
ॐ धुर्लाभाया नमः
ॐ दुर्गामाया नमः
ॐ दुर्गाया नमः
ॐ दुरावासाय नमः
ॐ दुरारिगने नमः
ॐ शुभान्गाया नमः
ॐ लोकासारान्गाया नमः
ॐ सुतन्तवे नमः
ॐ थान्ठुवार्धनाया नमः
ॐ इन्द्रकर्माने नमः
ॐ महकर्माने नमः
ॐ क्रिथाकर्माने नमः
ॐ क्रिथागामाया नमः
ॐ उध्भावाया नमः
ॐ सुन्दराय नमः
ॐ सुन्धाया नमः
ॐ रत्नानाभाया नमः
ॐ सुलोचनाय नमः
ॐ अर्काय नमः
· ॐ वाजसनाय नमः
ॐ श्रीन्गाने नमः
ॐ जयंथाया नमः
ॐ सर्वविज्जैने नमः
ॐ सुवार्नाबिन्दावे नमः
ॐ अक्षोभ्याय नमः
ॐ श्रर्ववाघीश्वरेश्वराय नमः
ॐ महाह्रुदाया नमः
ॐ महागार्थाया नमः
ॐ महाभुथाया नमः
ॐ महानिधये नमः
ॐ कुमुदाय नमः
ॐ कुन्दराय नमः
ॐ कुन्दाय नमः
ॐ पुर्जन्याया नमः
ॐ पावनाय नमः
ॐ अनिलाय नमः
ॐ अम्रुथान्शाया नमः
ॐ अम्रुथावापुशे नमः
ॐ सर्वग्नाया नमः
ॐ सर्वथोमुखाया नमः
ॐ सुलभाय नमः
ॐ सुव्रथाया नमः
ॐ सिद्धाय नमः
ॐ शाथ्रुजिते नमः
ॐ शाथ्रुताप्नाया नमः
ॐ न्यग्रोधाय नमः
ॐ उदुम्ब्राया नमः
ॐ अश्वत्थाय नमः
· ॐ चानुरान्द्रनिशुदानाया नमः
ॐ सहस्थ्रार्चिशे नमः
ॐ सप्थाजीवाया नमः
ॐ सप्ठेधासे नमः
ॐ सप्थावाहनाया नमः
ॐ अम्रुर्थाये नमः
ॐ अनघाय नमः
ॐ अचिन्त्याय नमः
ॐ भायाक्रिह्ठे नमः
ॐ भायानाशानाया नमः
ॐ अनावे नमः
ॐ ब्रिहठे नमः
ॐ कृशाय नमः
ॐ स्थोलाया नमः
ॐ ग्रिनाभ्रुठे नमः
ॐ निर्गुणाय नमः
ॐ महाथे नमः
ॐ अध्राथाया नमः
ॐ स्वध्राथाया नमः
ॐ स्वास्याय नमः
ॐ प्राग्वंशाय नमः
ॐ वन्श्वर्धनाया नमः
ॐ भारभ्रिठे नमः
ॐ कठिथाया नमः
ॐ योगिने नमः
ॐ योगीशाय नमः
ॐ सर्वकामदाय नमः
· ॐ आश्रमाय नमः
ॐ श्रमानाया नमः
ॐ क्षामाय नमः
ॐ सुपर्नाया नमः
ॐ वायुवाहनाय नमः
ॐ धनुर्धराय नमः
ॐ धनुर्वेदाय नमः
ॐ धनदाय नमः
ॐ धमयिथ्रे नमः
ॐ धमाया नमः
ॐ अपराजिताय नमः
ॐ सर्वसहाय नमः
ॐ अनियांथ्रे नमः
ॐ अनियामाया नमः
ॐ यमाय नमः
ॐ सत्त्ववाठे नमः
ॐ सत्त्विकाया नमः
ॐ सथ्याया नमः
ॐ सथ्यधार्मापरायानाया नमः
ॐ अभिप्रायाय नमः
ॐ प्रियाराहाया नमः
ॐ अरहाया नमः
ॐ प्रहिक्रिह्ठे नमः
ॐ प्रीतिवर्धनाय नमः
ॐ विहायासगाथाये नमः
ॐ ज्योथिशे नमः
ॐ सुरुचये नमः
ॐ हुथाभूजे नमः
ॐ विभवे नमः
ॐ रवये नमः
ॐ विरोचनाय नमः
ॐ सूर्याय नमः
ॐ सवित्रे नमः
ॐ रविलोचनाय नमः
ॐ अनंथाया नमः
ॐ हुथाभूजे नमः
ॐ भोक्त्हरे नमः
ॐ सुखदाय नमः
ॐ नैकजाय नमः
ॐ अग्रजाय नमः
ॐ अनिर्विन्नाया नमः
ॐ सदमर्शिने नमः
ॐ लोकाधिश्तानाया नमः
ॐ अध्भुथाया नमः
ॐ सनाथ नमः
ॐ सनाथानाथामाया नमः
ॐ कपिलाय नमः
ॐ कपये नमः
ॐ अप्यायाया नमः
ॐ स्वस्थिदाया नमः
ॐ स्वस्थिक्रिह्ठे नमः
ॐ स्वस्थिभूजे नमः
ॐ स्वस्थिधाक्षिनाया नमः
ॐ अरौध्राया नमः
ॐ कुण्डलिने नमः
ॐ चक्रिने नमः
ॐ विक्रमिने नमः
ॐ ऊऊर्जिथशासनाय नमः
ॐ शब्दाथिगाया नमः
· ॐ शब्दसहाय नमः
ॐ शिशिराय नमः
ॐ शर्वरीकराय नमः
ॐ अक्रूराय नमः
ॐ पेशलाय नमः
ॐ धक्शाया नमः
ॐ दक्शिनाया नमः
ॐ क्षमिना वराय नमः
ॐ विदुत्तामाया नमः
ॐ वीथाभायाया नमः
ॐ पुण्य श्रवानाकीर्थानाया नमः
ॐ उत्तारानाया नमः
ॐ दुश्क्रिथिगने नमः
ॐ पुण्याय नमः
ॐ दुस्वप्नानाशानाया नमः
ॐ वीरागने नमः
ॐ रक्षानाया नमः
ॐ सद्भयो नमः
ॐ जीवनाय नमः
ॐ पर्यवास्थिथाया नमः
ॐ अनंथारूपाया नमः
ॐ अनंथाश्रिये नमः
ॐ जितमन्यवे नमः
ॐ भयापहाय नमः
ॐ चतुर्स्थ्राया नमः
ॐ गबीरात्मने नमः
ॐ विदीशाया नमः
ॐ व्याधिशाया नमः
ॐ दिशाय नमः
ॐ अनादये नमः
ॐ भुर्भुवाया नमः
ॐ लक्ष्म्ये नमः
ॐ सुविराया नमः
ॐ रुचिरान्ग्दाया नमः
ॐ जननाय नमः
ॐ जनजन्मादये नमः
ॐ भीमाय नमः
ॐ भीमपराक्रमाय नमः
ॐ आधार्निलायाया नमः
ॐ अधाथ्रे नमः
ॐ पुष्पहासाय नमः
ॐ प्रजागराय नमः
ॐ ऊर्ध्वगाय नमः
ॐ सत्पथाचाराय नमः
ॐ प्रानादाया नमः
ॐ प्राणवाय नमः
ॐ प्राणाया नमः
ॐ प्रमानाया नमः
ॐ प्रानानिलायाया नमः
ॐ प्रानाभ्रिह्ठे नमः
ॐ प्रानाजीवानाया नमः
ॐ तत्त्वाय नमः
ॐ तत्त्वविधे नमः
ॐ एकात्मने नमः
ॐ जन्मा मृत्यु जराथिगाया नमः
ॐ भूर्भुव स्वस्थारावे नमः
ॐ ताराया नमः
ॐ सवित्रे नमः
ॐ प्रपिथाम्हाया नमः
ॐ याग्नाया नमः
ॐ याग्नपथाये नमः
ॐ यज्वने नमः
ॐ याग्नान्गाया नमः
ॐ याग्नवाहानाया नमः
ॐ याग्नब्रिह्ठे नमः
ॐ याग्नक्रिह्ठे नमः
ॐ याग्निने नमः
ॐ याग्नभूजे नमः
ॐ याग्नसाधानाया नमः
ॐ याग्नान्थाक्रिह्ठे नमः
ॐ याग्नगुह्याया नमः
ॐ अन्नाय नमः
ॐ अन्नादाय नमः
ॐ आत्मयोंये नमः
ॐ स्वयाम्जाताया नमः
ॐ वैखानाय नमः
ॐ सामगायनाय नमः
ॐ देवकी नन्दनाय नमः
ॐ स्थ्रास्ते नमः
ॐ क्शिथिशाया नमः
ॐ पापनाशनाय नमः
ॐ सम्खाब्रिह्ठे नमः
ॐ नन्दकिने नमः
ॐ चक्रिने नमः
ॐ सारंगा धन्वने नमः
ॐ गढ़ाधाराया नमः
ॐ राथान्गापानाये नमः
ॐ अक्षोभ्याय नमः
·ॐ सर्वप्रहरानायुधाया नमः
ॐ शर्माने नमः
ॐ विश्वरेतास्सेह नमः
ॐ प्रजाभवायअ नमः
ॐ अह्ने नमः
ॐ संवत्सराय नमः
ॐ व्यालाय नमः
ॐ प्रत्ययाय नमः
ॐ सर्वदर्शनाय नमः
ॐ अजय नमः
ॐ सर्वेश्वराय नमः
ॐ सिद्धाय नमः
ॐ सिद्धये नमः
ॐ सवादिये नमः
ॐ अच्युताय नमः
ॐ वृषाकपये नमः
ॐ अमेयात्मने नमः
ॐ सर्वयोगाविनिह्सृताया नमः
ॐ वासवे नमः
ॐ वसुमनसे नमः
ॐ सत्याय नमः
ॐ समात्मने नमः
ॐ सम्मिताय नमः
ॐ समाया नमः
ॐ अमोघाय नमः
ॐ पुन्दरीकक्षाया नमः
ॐ वृशाकर्माने नमः
ॐ वृशाक्रिताये नमः
ॐ रुद्राय नमः
ॐ बहुसिरसे नमः
ॐ बभ्रुवे नमः
ॐ विश्वयोंये नमः
ॐ सुचिस्रावासे नमः
ॐ अमृताय नमः
ॐ सस्वथ्स्थानावे नमः
ॐ वरारोहाय नमः
ॐ महातपसे नमः
ॐ सर्वगाय नमः
ॐ सर्वविद्वानावे नमः
ॐ विस्वक्सेनाया नमः
ॐ जनार्दनाय नमः
ॐ वेदाय नमः
ॐ वेदविदे नमः
ॐ अव्यन्गाया नमः
ॐ वेदान्गाया नमः
ॐ वेदविदे नमः
ॐ कवये नमः
ॐ लोकाद्याक्षाया नमः
ॐ सुरद्याक्षाया नमः
ॐ दर्माद्याक्षाया नमः
ॐ क्रिताक्रिताया नमः
ॐ चतुरात्मने नमः
ॐ छतुर्वुएहाय नमः
ॐ चतुर्द्रिश्ताया नमः
ॐ चतुर्भुजाय नमः
ॐ भ्राजिश्नावे नमः
ॐ भोजनाय नमः
ॐ भोक्त्रे नमः
ॐ सहिष्णवे नमः
ॐ जगदादिजाय नमः
ॐ अनाधाया नमः
ॐ विजयाय नमः
ॐ जेत्रे नमः
ॐ विस्वयोंये नमः
ॐ पुनर्वसवे नमः
ॐ उपेन्द्राय नमः
ॐ वामनाय नमः
ॐ प्राम्शावे नमः
ॐ अमोघाय नमः
ॐ शुचये नमः
ॐ ऊर्जिथाया नमः
ॐ अतीन्द्राय नमः
ॐ संग्रहाय नमः
ॐ सगाई नमः
ॐ द्रितात्माने नमः
ॐ नियमाये नमः
ॐ याम्हाया नमः
ॐ वेद्य - आया नमः
ॐ वैद्य - आया नमः
ॐ सदायोगिने नमः
ॐ विर्धने नमः
ॐ माधवाय नमः
ॐ मधवे नमः
ॐ अथिनिद्राया - आया नमः
ॐ महामाया - आया नमः
ॐ महोत्सहाया नमः
ॐ महाबलाय नमः
ॐ बुद्धेये नमः
ॐ महाविर्याया नमः
ॐ शक्तये नमः
ॐ महाधुठेया नमः
ॐ अनिर्धश्यवापुशे नमः
ॐ श्रीमते नमः
ॐ अमेयात्मने नमः
ॐ महाद्रिधाग्गे नमः
ॐ महेश्वसाया नमः
ॐ महिब्रतरे नमः
ॐ श्रीनिवासाया नमः
ॐ संथ्गाथ्ये नमः
ॐ अनिरुद्धाये नमः
· ॐ सुरनान्धाया नमः
ॐ गोविन्दाय नमः
ॐ गोविंदा पतये नमः
ॐ मरीचये नमः
ॐ दमनाय नमः
ॐ हंसाया नमः
ॐ सुपरानाया नमः
ॐ भुजगोथामाया नमः
ॐ हिरान्यनाभय नमः
ॐ सुतपसे नमः
ॐ पद्मनाभाय नमः
ॐ प्रजपथाये नमः
ॐ अमृत्यवे नमः
ॐ सर्वद्गाशो नमः
ॐ सिम्हाया नमः
ॐ संधोतरे नमः
ॐ संधिमाते नमः
ॐ स्थिताराया नमः
ॐ अजय नमः
ॐ दुर्मर्शनाया नमः
ॐ शास्त्रे नमः
ॐ विश्रुतात्मने नमः
ॐ सुररिगने नमः
ॐ गुरवे नमः ·
ॐ गुरुतामय नमः
ॐ धाम्ने नमः
ॐ सथ्याया नमः
ॐ सत्यापराकमाया नमः
ॐ निमिशाया नमः
ॐ अनिमिषाय नमः
ॐ स्त्र्गविनो नमः
ॐ वाचस्पतये उधार्धिये नमः
ॐ अग्रंये नमः
ॐ ग्रामण्ये नमः
ॐ श्रीमते नमः
ॐ न्याय्य नमः
ॐ नेत्रे नमः
ॐ समीर्नाया नमः
ॐ सहस्त्रम्रुधने नमः
ॐ विश्वात्मने नमः
ॐ सहस्त्राक्षाय नमः
ॐ सहस्त्रपदे नमः
ॐ आवर्थानाया नमः
ॐ निवृत्थात्माने नमः
ॐ संमृथय नमः
ॐ सम्प्रमार्दानाया नमः
ॐ अहस्संवार्ताकाया नमः
ॐ वह्निये नमः
ॐ अनिलाय नमः

ॐ धरानिधाराया नमः
ॐ सुप्रसदय नमः
ॐ प्रसंनातामाने नमः
ॐ विश्वध्रागे नमः
ॐ विश्वभुजे नमः
ॐ विभवे नमः
ॐ सत्कर्त्रे नमः
ॐ सत्कृत्य नमः
ॐ साधवे नमः
ॐ जहान्नुये नमः
ॐ नारायणाय नमः
ॐ नाराय नमः
ॐ असंख्येयेया नमः
ॐ अप्रमेयात्मने नमः
ॐ अजितःय नमः
ॐ कृष्णाय नमः
ॐ दृदय नमः
ॐ संकर्शनाया अच्युथाया नमः
ॐ वरुणाय नमः
ॐ वारुनाया नमः
ॐ वृक्षाय नमः
ॐ पुष्कराक्षाय नमः
ॐ महामनसे नमः
ॐ भगवते नमः
ॐ भगघ्ने नमः
ॐ अनंदिने नमः
ॐ वनमालिने नमः
ॐ हलायुधाय नमः
ॐ आदित्याय नमः
ॐ ज्योथिरादित्याया नमः
ॐ सहिष्णवे नमः
ॐ गतिसत्तामाया नमः
ॐ सुधन्वने नमः
ॐ खान्द्पराशावे नमः
ॐ धारुनाया नमः
ॐ द्रविनाप्रदय नमः
ॐ दिवस्प्रशे नमः
ॐ सर्वध्रिक्व्यासाया नमः
ॐ वाचास्पथाये अयोनिजाय नमः
ॐ त्रिसाम्ने नमः
ॐ सामगाय नमः
ॐ सामने नमः
ॐ निर्वानाया नमः
ॐ भेश्जाया नमः
ॐ भिषजे नमः
ॐ संयास्क्रिठे नमः
ॐ शमाय नमः
ॐ शान्थाया नमः
ॐ निश्ताया नमः
ॐ शान्थ्ये नमः
ॐ परयानाया नमः
ॐ सर्वतःचाक्शुशे नमः
ॐ अनीशाय नमः
ॐ शाशावात्स्थिराया नमः
ॐ भूशयाय नमः
ॐ भूशानाया नमः
ॐ भूतये नमः
ॐ विशोकाय नमः
ॐ शोकनाशनाय नमः
ॐ अर्चिष्मते नमः
ॐ अर्चिथाया नमः
ॐ कुम्भाय नमः
ॐ विशुद्धात्मने नमः
ॐ विशोधनाय नमः
ॐ अनिरुद्धाय नमः
ॐ अप्रथिराथाया नमः
ॐ प्रध्युम्नाया नमः
ॐ अमितविक्रमाय नमः
ॐ काल्नेमिनिगने नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ शौरये नमः
ॐ शूरजनेश्वराय नमः
ॐ त्रिलोकात्मने नमः
ॐ त्रिलोकेशाय नमः
ॐ केशवाय नमः
ॐ केशिगने नमः
ॐ हराए नमः
ॐ काम्देवाया नमः
ॐ कामपालाय नमः
ॐ कामिने नमः
ॐ कान्थाया नमः
ॐ क्रिथागामाया नमः
ॐ अनिर्धेश्यवापुशे नमः
ॐ विष्णवे नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ अनंथाया नमः
ॐ धनंजयाय नमः
ॐ ब्रह्मण्याय नमः
ॐ ब्रह्मकृते नमः
ॐ सद्भूथाये नमः
ॐ सत्परानाया नमः
ॐ शूरसेनाय नमः
ॐ यदुश्रेस्ताया नमः
ॐ संनिवासाया नमः
ॐ सुयामुनाया नमः
ॐ भूथावासाया नमः
ॐ वासुदेवाय नमः
ॐ सर्वासुनिलयाय नमः
ॐ अनलाय नमः
ॐ धर्पगने नमः
ॐ धर्पदाया नमः
ॐ ध्रुप्थाया नमः
ॐ धुर्ध्राया नमः
ॐ अपराजिताय नमः
ॐ विश्वमुर्थाये नमः
ॐ महामुर्थाये नमः
ॐ दीप्थामुर्थाये नमः
ॐ अमूर्थिमाते नमः
ॐ अनेकामुर्थाये नमः
ॐ अव्यक्थाया नमः
ॐ शाथामुर्थाये नमः
ॐ शताननाय नमः
ॐ एकाया नमः
ॐ नौकाय नमः
ॐ सवाया नमः
ॐ काय नमः
ॐ कसमे नमः
ॐ यसमे नमः
· ॐ तस्मे नमः
ॐ पदामानुत्तामाया नमः
ॐ लोकबन्धवे नमः
ॐ लोकनाथाय नमः
ॐ माधवाय नमः
ॐ भक्थावात्सलाया नमः
ॐ सुवार्नावार्नाया नमः
ॐ हेमान्गाया नमः
ॐ विशिष्टाया नमः
ॐ शुचये नमः
ॐ सिद्धार्थाय नमः
ॐ सिद्धासंकल्पाया नमः
ॐ सिद्धिदयाह नमः
ॐ सिद्धिसदानाहाया नमः
ॐ वृशाहिनेया नमः
ॐ वृशाभय नमः
ॐ विष्णवे नमः
ॐ वृश्पर्वाने नमः
ॐ वृशोदाराया नमः
ॐ वर्धनाय नमः
ॐ वर्धमनाया नमः
ॐ विविक्थाया नमः
ॐ श्रुथिसागाराया नमः
ॐ सुबुसजाया नमः
ॐ धुर्धराया नमः
ॐ वाग्मिने नमः
ॐ महेन्द्राय नमः
ॐ वसुदय नमः
ॐ वासवे नमः
ॐ नैकरुपाया नमः
ॐ ब्रिहद्रूपाया नमः
ॐ शिपिविश्ताया नमः
ॐ प्रकाशनाया नमः
ॐ ओजस्तेजोद्युथिधाराया नमः
ॐ प्रकाशात्मने नमः
ॐ प्रतापनाया नमः
ॐ रिद्धाया नमः
ॐ स्पश्ताक्षराया नमः
ॐ मन्त्राय नमः
ॐ चंद्रन्शावे नमः
ॐ भास्कराद्युथाये नमः
ॐ अम्रिताम्सूद्भावाया नमः
ॐ भानवे नमः
ॐ शशबिन्दवे नमः
ॐ सुरेश्वराय नमः
ॐ ओश्धाया नमः
ॐ जगत सतावे नमः
ॐ सत्याधार्मापराक्रमाया नमः
ॐ भूताभाव्यभावान्नाथाया नमः
ॐ पवनाय नमः
ॐ पावनाय नमः
ॐ अनलाय नमः
ॐ काम्धने नमः
ॐ कामाकृठे नमः
ॐ कान्थाया नमः
ॐ कामय नमः
ॐ कामाप्रदय नमः
ॐ प्रभवे नमः
ॐ युगढ़िकृठे नमः
ॐ युगावार्थाया नमः
· ॐ नैकमायाय नमः
ॐ महाशानाया नमः
ॐ अद्रिश्याया नमः
ॐ व्यक्तारूपाया नमः
ॐ सहस्त्रजिते नमः
ॐ अनंथाजिते नमः
ॐ इश्ताया नमः
· ॐ विशिष्टाया नमः ·
ॐ षिश्तेअस्तय नमः
ॐ शिकंदिने नमः
ॐ नहुशाया नमः
ॐ वृषाय नमः
ॐ क्रोध्गने नमः
ॐ क्रोधाक्रित्कर्ता नमः
ॐ विश्वबाहवे नमः
ॐ महिधाराया नमः
ॐ अच्युथाया नमः
ॐ प्रथिथाया नमः
ॐ प्राणाया नमः
ॐ प्रान्दाया नमः
ॐ वासवानुजय नमः
ॐ अपं निधये नमः
ॐ अधिश्तानाया नमः
ॐ अप्रमात्थाया नमः
ॐ प्रथिश्ताताया नमः
ॐ स्कन्दाय नमः
ॐ स्कन्दा धराया नमः
ॐ धुर्याय नमः
ॐ वरधाया नमः
ॐ वायु वहानाया नमः
ॐ वासुदेवाय नमः
ॐ ब्रिहत्भानावे नमः
ॐ आदिदेवाया नमः
ॐ पुरान्दराया नमः
ॐ अशोकाया नमः
ॐ तरानाया नमः
ॐ ताराया नमः
ॐ शुराया नमः
ॐ शौर्ये नमः
ॐ जनेश्वराय नमः
ॐ अनुकुलाया नमः
ॐ शातावार्त्ताया नमः
ॐ पद्मीने नमः
ॐ पद्मेनेबेक्षनाये नमः
ॐ पद्मनाभाय नमः
ॐ अरविन्दाक्षाया नमः
ॐ पद्मगार्भय नमः
ॐ सरीराभ्रिते नमः
ॐ महार्द्धेये नमः
ॐ श्रद्धया नमः
ॐ वृद्धात्मने नमः
ॐ महा क्षय नमः
ॐ गरुदाद्वाजय नमः
ॐ अतुल्य नमः
ॐ शरभाय नमः
ॐ भीमाय नमः
ॐ समयाग्नाया नमः
ॐ हविर्हरये नमः
ॐ सर्वलाक्षानालाक्षनाया नमः
ॐ लक्ष्मीवते नमः
ॐ समिथिन्जयाया नमः
ॐ विक्षराया नमः
ॐ रोहिताया नमः
ॐ मार्गाय नमः
ॐ हेतवे नमः
ॐ दामोदराय नमः
ॐ सहाय नमः
ॐ महिधाराया नमः
ॐ महाभागाय नमः
ॐ वेगावाठे नमः
ॐ अमिताशानाया नमः
ॐ उद्भावाया नमः

ॐ अच्युताय नमः
ॐ अनंताय नमः
ॐ गोविन्दाय नमः
ॐ केशवाय नमः
ॐ नारायणाय नमः
ॐ माधवाय नमः
ॐ गोविन्दाय नमः
ॐ विष्णवे नमः
ॐ मधुसूदनाय नमः
ॐ त्रिविक्रमाय नमः
ॐ वामनाय नमः
ॐ श्रीधराय नमः
ॐ रिशिकेशाया नमः
ॐ पद्मनाभाय नमः
ॐ दमोधाराया नमः
ॐ श्री वेदव्यास रिषिहि अनुष्टुप चंधः विश्वरूपो महाविष्णु देवता
ॐ विश्वस्मै नमः
ॐ विष्णवे नमः
ॐ वासत्काराया नमः
ॐ भूता भव्य भावत प्रभवे नमः
ॐ भूतकृते नमः
ॐ भूताभ्रिते नमः
ॐ भव्य नमः
ॐ भूतात्मने नमः
ॐ भूता भावनाया नमः
ॐ भूतात्मने नमः
ॐ परमात्मने नमः
ॐ मृक्थानाम परमय गतये नमः
ॐ अव्ययाय नमः
ॐ पुरुषाय नमः
ॐ साक्षीने नमः
ॐ क्षेत्रग्नाया नमः
ॐ अक्षराय नमः
ॐ योग्य नमः
ॐ योगनिदाम नेत्रे नमः
ॐ प्रधानापुरुशेश्वराया नमः
ॐ नारासिम्हावापुशे नमः
ॐ श्रीमते नमः
ॐ केशवाय नमः
ॐ पुरुशोत्तामाया नमः
ॐ सर्वस्मै नमः
ॐ शर्वाय नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ स्थाणवे नमः
ॐ भूतादये नमः
ॐ निधये अव्ययाय नमः
ॐ सम्भावाया नमः
ॐ भावनाया नमः
ॐ भर्त्रे नमः
ॐ प्रभावाय नमः
ॐ प्रभवे नमः
ॐ एअश्वराया नमः
ॐ स्वयम्भुवे नमः
ॐ शम्भवे नमः
ॐ आदित्याय नमः
ॐ पुष्कराक्षाय नमः
ॐ महास्वनाय नमः
ॐ अनादिनिदानाया नमः
ॐ धात्रे नमः
ॐ विधात्रे नमः
ॐ धातुरुत्तामाय नमः
ॐ अप्रमेयाय नमः
ॐ हृषीकेशाय नमः
ॐ पद्मनाभाय नमः
ॐ अमरप्रभवे नमः
ॐ विश्वकर्माने नमः
ॐ मानावे नमः
ॐ त्वास्त्रे नमः
ॐ स्थाविश्ताया नमः
ॐ स्थविराय ध्रुवाय नमः
ॐ अग्राह्ह्या नमः
ॐ शाश्वताय नमः
ॐ कृष्णाय नमः
ॐ लोहिताक्षाय नमः
ॐ प्रतर्दनाय नमः
ॐ प्रभूताय नमः
ॐ त्रिककुब्धाम्ने नमः
ॐ पविथ्राया नमः
ॐ मंगलाय परस्मै नमः
ॐ एअशानाया नमः
ॐ प्रानादाया नमः
ॐ प्राणाया नमः
ॐ ज्येश्ताया नमः
ॐ श्रेश्ताया नमः
ॐ प्रजापतये नमः
ॐ हिरान्यगार्भाया नमः
ॐ भूगर्भाय नमः
ॐ माधवाय नमः
ॐ मधुसूधानाया नमः
ॐ एअश्वराया नमः
ॐ विक्रमिने नमः
ॐ धन्विने नमः
ॐ मेधाविने नमः
ॐ विक्रमाय नमः
ॐ क्रमाय नमः
ॐ अनुत्तमाय नमः
ॐ दुर्रधार्शाया नमः
ॐ क्रिताग्नाया नमः
ॐ कृतये नमः
ॐ आत्मवते नमः
ॐ सुरेशाय नमः
ॐ शरानाया नमः

गुरू जीवित है तब भी गुरू, गुरू होते हैं और गुरू का शरीर नहीं होता तब भी गुरू गुरू ही होते हैं।
गुरू नजदीक होते हैं तब भी गुरू गुरू ही होते हैं और गुरू का शरीर दूर होता है तब भी गुरू दूर नहीं होते।
गुरू प्रेम करते हैं, डाँटते हैं, प्रसाद देते हैं, तब भी गुरू ही होते हैं और गुरू रोष भरी नजरों से देखते हैं, ताड़ते हैं तब भी गुरू ही होते हैं

लोग क्यों दुःखी हैं ? क्योंकि अज्ञान के कारण वे अपने सत्यस्वरूप को भूल गये हैं और अन्य लोग जैसा कहते हैं वैसा ही अपने को मान बैठते हैं | यह दुःख तब तक दूर नहीं होगा जब तक मनुष्य आत्म-साक्षात्कार नहीं कर लेगा

Friday, April 30, 2010

हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ हरि ऊँ

कुसंग से बचो, सत्संग करो
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दो नाविक थे। वे नाव द्वारा नदी की सैर करके सायंकाल तट पर पहुँचे और एक-दूसरे से कुशलता का समाचार एवं अनुभव पूछने लगे। पहले नाविक ने कहाः "भाई ! मैं तो ऐसा चतुर हूँ कि जब नाव भँवर के पास जाती है, तब चतुराई से उसे तत्काल बाहर निकाल लेता हूँ।" तब दूसरा नाविक बोलाः "मैं ऐसा कुशल नाविक हूँ कि नाव को भँवर के पास जाने ही नहीं देता।"

अब दोनों में से श्रेष्ठ नाविक कौन है ? स्पष्टतः दूसरा नाविक ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह भँवर के पास जाता ही नहीं। पहला नाविक तो किसी न किसी दिन भँवर का शिकार हो ही जायेगा।

इसी प्रकार सत्य के मार्ग अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले पथिकों के लिए विषय विकार एवं कुसंगरूपी भँवरों के पास न जाना ही श्रेयस्कर है।

अगर आग के नजदीक बैठोगे जाकर, उठोगे एक दिन कपड़े जलाकर।
माना कि दामन बचाते रहे तुम, मगर सेंक हरदम लाते रहे तुम।।

कोई जुआ नहीं खेलता,किंतु देखता है तो देखते-देखते वह जुआ खेलना भी सीख जायेगा और एक समय ऐसा आयेगा कि वह जुआ खेले बिना रह नहीं पायेगा।

इसी प्रकार अन्य विषयों के संदर्भ में भी समझना चाहिए और विषय विकारों एवं कुसंग से दूर ही रहना चाहिए।जो विषय एवं कुसंग से दूर रहते हैं,वे बड़े भाग्यवान हैं।

हरि ऊँ

Thursday, April 29, 2010

सांसारिक सहारे पत्थर की नाव है, हमे डुबो देंगे ! हमारा तो एक मात्र सहारा श्री हरि के चरण है ! सब सहारो को छोड़ने के पशचात श्री हरि के चरणों का आश्रय मिलेगा ! हमे दुःख क्यो मिलता है क्योंकि हमारा सहारा गलत है ! हम वासनाओं के व् आसकतियो के दास है और झूठे सहारो को पकड़े है ! हम संसार को ठग सकते है, परन्तु प्रभु को नही ! एक मात्र श्री हरि चरणों को पकडो ! केवल उनका आश्रय लो !

हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !

सबसे दुःखी और नासमझ दुनिया में कौन हैं ? जो यह समझते हैं कि हमारे ही मन के अनुसार सब कुछ हो। अरे ! तुम कोई ईश्वर तो हो नहीं। दूसरे लोग भी हैं दुनिया में, उनका भी मन है, उनकी भी मति है, उनकी भी गति है, उनके भी विचार हैं, सब तुम्हारे मन के विचार के गुलाम होकर कैसे रहेंगे.
सच्चे सदगुरु तो तुम्हारे स्वरचित सपनों की धज्जियाँ उड़ा देंगे। अपने मर्मभेदी शब्दों से तुम्हारे अंतःकरण को झकझोर देंगे। वज्र की तरह वे गिरेंगे तुम्हारे ऊपर। तुमको नया रूप देना है, नयी मूर्ति बनाना है, नया जन्म देना है न ! वे तरह-तरह की चोट पहुँचायेगे, तुम्हें तरह-तरह से काटेंगे तभी तो तुम पूजनीय मूर्ति बनोगे। अन्यथा तो निरे पत्थर रह जाओगे।

इस बेरंग ज़िंदगी की तस्वीर तुम हो
सच्चे सदगुरु मेरे ज़मीर तुम हो
कबूल लो यह इनायत् मेरी
मेरी ज़िंदगी का आसरा तुम हो***

भूल से उत्पन्न हुई असावधानी और असावधानी से उत्पन्न एवं पोषित दोषों को मिटाने में अपने को असमर्थ स्वीकार करना और नित्य प्राप्त,स्वत: सिद्ध निर्दोषता से निराश होना मानव-जीवन का घोर अनादर है।यह नियम है कि जो अपना आदर नहीं करता,उसका कोई आदर नहीं करता।अपने आदर का अर्थ दूसरों का अनादर नहीं है,अपितु दूसरों के अनादर से तो अपना ही अनादर होने लगता है;क्योंकि जो किसी को भी दोषी मानता है,वह स्वयं निर्दोष नहीं हो सकता।

Saturday, March 06, 2010

********* SRIMAD BHAGVAD GITA (11.44 - 11.46) *********

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं- प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।44।।

अतएव हे प्रभो ! मैं शरीर को भलीभाँति चरणों में निवेदित कर, प्रणाम करके, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करता हूँ। हे देव ! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्नी के अपराध सहन करते हैं – वैसे ही आप भी मेरे अपराध सहन करने योग्य
हैं।(44)

Therefore, bowing down, prostrating my body, I crave Thy forgiveness, O adorable Lord! As a father forgives his son, a friend his (dear) friend, a lover his beloved, even so shouldst Thou forgive me, O God!

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूपं- प्रसीद देवेश जगन्निवास।।45।।

मैं पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है, इसलिए आप उस अपने चतुर्भुज विष्णुरूप को ही मुझे दिखलाइये ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! प्रसन्न होइये।(45)

I am delighted, having seen what has never been seen before; and yet my mind is distressed with fear. Show me that (previous) form only, O God! Have mercy, O God of gods! O abode of the universe!

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त- मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।46।।

मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किये हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूँ, इसलिए हे विश्वस्वरूप ! हे सहस्रबाहो ! आप उसी चतुर्भुजरूप से प्रकट होइये।(46)

I desire to see Thee as before, crowned, bearing a mace, with the discus in hand, in Thy former form only, having four arms, O thousand-armed, Cosmic Form (Being)!
गुरु वचन :

ईश्वरीय शक्तियाँ तुम्हारे द्वारा काम करने को तत्पर हैं। तुम क्यों बेईमानी कर रहे हो ? क्यों अपेक्षाएँ कर रहे हो ? क्यों सिकुड़ रहे हो ? क्यों मन के गुलाम बन रहे हो ? मन की कल्पनाओं के पीछे भाग रहे हो ? मारो ॐकार की गदा...। अपेक्षाओं को चूर... चूर कर दो। वासनाओं को कुचल डालो। फिर देखो, क्या रहस्य खुलने लगते हैं !

होली यानी जो हो... ली.... कल तक जो होना था, वह हो लिया। आओ, आज एक नयी जिंदगी की शुरुआत करें। जो दीन-हीन हैं, शोषित है, उपेक्षित है, पीड़ित है, अशिक्षित है, समाज के उस अंतिम व्यक्ति को भी सहारा दें। जिंदगी का क्या भरोसा ! कुछ काम ऐसे कर चलो कि हजारों दिल दुआएँ देते रहें... चल पड़ो उस पथ पर, जिस पर चलकर कुछ दीवाने प्रह्लाद बन गये। करोगे न हिम्मत ! तो उठो और चल पतो उठो और चल पड। तो उठो और चल पड़ो प्रभुप्राप्ति, प्रभुसुख, प्रभुज्ञान, प्रभुआनंद प्राप्ति के पुनीत पथ पर ।

संसार के सुख पाने की इच्छा दोष ले आती है और आत्मसुख पाने की इच्छा सदगुण ले आती है। ऐसा कोई दुर्गुण नहीं जो संसार के भोग की इच्छा से पैदा न हो। व्यक्ति बुद्धिमान हो, लेकिन भोग की इच्छा उसमें दुर्गुण ले आयेगी। चाहे कितना भी बुद्धू हो, लेकिन ईश्वर प्राप्ति की इच्छा उसमें सदगुण ले आएगी।
नारायण .... नारायण

Tuesday, January 05, 2010

HariOm,

The divine services by the ashram with blessings of Pujya Bapuji have been performed for many years regularly। Few of them were captured in camera। Please do visit the following link to get the visual tour of those divine sewa।

http://www.ashram.org/About-Ashram/Activities

Pujya Gurudev teachs us :

"Parhit saris dharam nahi bhai, par-peeda sam nahi adhmai"

निर्धन हो या हो धनवान , समझें सबको एक समान ।
"शुभ" झलक मिल जाए तो -२ , टूट जाते हैं सारे अभिमान ॥

We proud to be the disciple of such great saint। Narayan Hari




Thursday, December 31, 2009

सत्संग लहरियाँ

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जो लोग भीष्ण संग्राम करके, क्रूर नरसंहार करके, बड़े-बड़े युद्ध खेलकर सत्ता की गद्दी पर पहुँच जाते हैं उनका नाम सुनकर उनको याद करके लोग आदर से नतमस्तक नहीं होते लेकिन विश्व में कुछ ऐसे आत्म-विजेता लोग हो जाते हैं, नतमस्तक हो जाते हैं। भीष्म, हरिश्चन्द्र, भरत, शंकराचार्य, महावीर, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य, मीराबाई, एकनाथजी, शिवाजी महाराज, तोतापुरी, रामकृष्ण आदि ऐसी विभूतियाँ हैं। जिन्होंने अपने मन को, अपनी इन्द्रियों को संयत किया है, जिन्होंने अपने को विकारी सुखों से बचाकर निर्विकारी नारायण सुख का प्रसाद पाया है ऐसे लोग चाहे इस देश के हों चाहे परदेश के हों, उनको समाज ने खूब आदर-मान से याद रखा है। लोगों ने सुकरात को याद रखा है, महात्मा थोरो को लोग याद करते हैं जिसस को लोग याद करते हैं, धन्ना जाट को लोग याद करते हैं, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य एवं अन्य कई महापुरूषों को, आत्मा-परमात्मा में विश्रान्ति पाये हुए संतों को हम बड़े आदर से याद करते हैं। शबरी भिलनी हो चाहे रोहिदास चमार हो, गार्गी हो चाहे राजा जनक हों, एकनाथजी हों या एकलव्य हो, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को वश करके मन को परमात्मा में लगाया है या लगाने का दृढ़ प्रयत्न किया है ऐसे लोग जन्म लेकर मर नहीं जाते लेकिन जन्म लेकर अमर आत्मा की ओर चल देते हैं, संसार में अपनी मधुरता, अपनी शुभ कीर्ति छोड़ जाते हैं।


भगवान श्रीकृष्ण भगवद् गीता में अर्जुन से कहते हैं-
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।

'इन्द्रिय समुदाय को सम्यक प्रकार से नियमित करके सर्वत्र समभाववाले, भूत मात्र के हित में रत वे भक्त मुझ ही को प्राप्त होते हैं।'
(भगवद् गीताः 12.4)
मनुष्य को विकारी आकर्षण ने तुच्छ बना दिया है। जिनके जीवन में संयम है, नियम है ऐसे इन्द्रियों को संयत करने वाले लोग, सब भूतों के हित में रमने वाले लोग, समभाव से मति को सम रखने वाले वे लोग मतिदाता के उच्च अनुभव में स्थिति पा लेते हैं। ऐसे लोग भगवान को प्राप्त कर लें इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। यह कोई जरूरी नहीं है कि वह आदमी अच्छा पढ़ा-लिखा होना चाहिए या अनपढ़ होना चाहिए, बहुत धनवान होना चाहिए या निर्धन होना चाहिए, बच्चा होना चाहिए या जवान होना चाहिए या बूढ़ा होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशोऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया।।

'हे अर्जुन ! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।'
(भगवद् गीताः 18.61)
भगवान कहते हैं कि सबके हृदय में मैं ज्यों का त्यों विराजमान हूँ। लेकिन सब मयारूपी यंत्र से भ्रमित हो रहे हैं।
माया का अर्थ है धोखा। धोखे के कारण हम दीन-हीन हुए जा रहे हैं। 'हे धन ! तू कृपा कर.... सुख दे। हे कपड़े ! तू सुख दे। हे गहने ! तू सुख दे।'

ब्रह्मलोक में वह सुख नहीं जो ब्रह्म परमात्मा के साक्षात्कार में है।
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशेभ्यः।
उस देव को जानने से जीव सारे पाशों से, सारी जंजीरों से मुक्त हो जाता है।
मनुष्य जन्म में ऐसी मति मिली है कि इससे वह भूत का, भविष्य का चिन्तन-विचार कर सकता है। पशु तो कुछ समय के बाद अपने माँ-बाप को भी भूल जाते हैं, भाई-बहन को भी भूल जाते है और संसार व्यवहार कर लेते हैं। मनुष्य की मति में स्मृति रहती है।