हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !
सबसे दुःखी और नासमझ दुनिया में कौन हैं ? जो यह समझते हैं कि हमारे ही मन के अनुसार सब कुछ हो। अरे ! तुम कोई ईश्वर तो हो नहीं। दूसरे लोग भी हैं दुनिया में, उनका भी मन है, उनकी भी मति है, उनकी भी गति है, उनके भी विचार हैं, सब तुम्हारे मन के विचार के गुलाम होकर कैसे रहेंगे.
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