Thursday, February 16, 2012

मेरे गुरु हैं तारणहार करते सबका बेडा पार
"शुभ" चरणों में मैं शीश झुकाऊं बारम्बार

श्री मुख से बहती निर्मल ज्ञान धारा
गुरु चरणों में अब वैकुण्ठ हमारा
करने को प्रभु का दीदार, तरसे आँखें लगातार
शुभ चरणों में मैं शीश झुकाऊं बारम्बार ....

मन से है नाम गुरु का जिसने उचारा
हुई दूर दुःख की छाया फैला उजियारा
करने भक्तों का कल्याण, खुद आये हैं भगवान्
शुभ चरणों में मैं शीश झुकाऊं बारम्बार ....

जन्मों से दर-दर रहा मैं भटकता
काम क्रोध मोह कभी माया में अटका
अब तो जागे मेरे भाग्य, मिला बापू का दरबार
शुभ चरणों में मैं शीश झुकाऊं बारम्बार ....

लेकर नाम तुम्हारा जीते हैं हम
मोह माया से अब बचाओ हमें तुम
जपते हरि ॐ- हरि ॐ आप, हम भी जपेंगे दिन रात
शुभ चरणों में मैं शीश झुकाऊं बारम्बार ....

रचना : अभिषेक मैत्रेय "शुभ"

Wednesday, January 11, 2012

एक दिन गणेश और कार्तिकेय में तात्विक वार्ता हुई थी,
दोनों में है कौन महान? यह बहस छिड़ी हुई थी
दोनों एक दूजे को अपनी महिमा सुना रहे थे
मैं बड़ा और मैं बड़ा, दोनों ही बता रहे थे
प्रश्न जटिल था, हल नहीं था, सोचा निर्णय कौन करे?
माँ पार्वती, पिता शिव से, जा अपनी दुविधा को कहे
माता पिता के पास जाके, दोनों ने यह पूछा
कृपया बताएं हम दोनों में है कौन सबसे ऊंचा?
माता पिता ने विचार किया, दोनों को अद्भुत कार्य दिया
पृथ्वी के सभी तीर्थों की, परिक्रमा कर जो पहले आयेगा
वही आप दोनों में, सबसे महान कहलायेगा
बिना विलम्ब कार्तिकेय निकल पड़े, अपने मोर वाहन पर
छोड़ मूषक वाहन, गणेश बैठे ध्यान लगा कर
पहुंचे गणपति ध्यान में गहरे, शास्त्रीय विचारों की उठने लगी लहरें
शास्त्र वचन ह्रदय में धारे, श्री मुख से अविलम्ब उचारे
"सर्व तीर्थमयी माता - सर्व देवमयी पिता",
शास्त्रों ने गाया है, ऊंचे हैं सबमें माता - पिता
स्नान आदि से निवृत हो, गणपति पहुंचे मात-पिता के पास
अर्घ्य-पाद से किया पूजन, नतमस्तक हुए "शुभ" चरणों के दास
शुद्ध ह्रदय से गणपति जी ने की परिक्रमा सात बार
लगे उचारने “वंदन है मात-पिता को बारम्बार”
बहुत प्रसन्न हुए मात पिता, देख पुत्र की भक्ति
पर पूछा क्या है बेटे - इस परिक्रमा की युक्ति?
गणपति बोले नम्र भाव से, शास्त्रों ने उदगार किया
जिसने पूजा मात- पिता को, उसे देवों ने सत्कार दिया
अतः आपकी परिक्रमा से, हुई परिक्रमा सभी तीर्थों की
साधुवाद देकर शिव पार्वती ने, स्वीकारी विजय गणेशजी की
उसी समय पहुचे कार्तिकेय कर, परिक्रमा पृथ्वी के तीर्थों की
विस्मित हुए देख गणेश को करते पूजन, मात-पिता के श्री चरणों की
कथा सुनी जब कार्तिकेय ने, अनुज गणेश की चतुराई की
प्रेम से गले लगाकर बोले, हुई हार मेरी चतुराई की
सुखद अंत हुआ वार्ता का, निर्णय निकला कितना सार
पुष्प-कुञ्ज श्री चरणों में समर्पित, बोले गणपति की जय जयकार
ह्रदय सम्राट श्री बापूजी ने यह, कथा हमें याद दिलाई है
मात-पिता के पूजन से, प्रेम दिवस की नयी परंपरा चलायी है
लाखों-लाखों विद्यार्थियों ने यह स्वीकारा है, मात-पिता के पूजन से जीवन में उजियारा है
हर वर्ष लाखों बालक ऐसा, अद्भुत पूजन दिवस मनाते हैं,
मात-पिता और बापू जी के, ह्रदय में अपनी जगह बनाते हैं
बापू जी की प्रेरणा से जग में, संस्कृति का सम्मान हो रहा
युवा वर्ग को मार्गदर्शन मिला, व्यसनों से निदान हो रहा
दृढ़ निश्चय आओ सभी करें, बापू के श्री वचनों पर चलें
कर मात- पिता का पूजन, हम प्रेम दिवस मनाएंगे
Valentine दिवस हटाकर, संस्कृति को बचायेंगे
१४ फरवरी को हमको यह, सौगात विश्व को देना है
मातृ-पितृ पूजन की प्रेरणा, रग-रग में भर देना है
धन्य धन्य हम भक्त बडभागी, जिन्हें गुरु, मात-पिता चरणों प्रीती लागी

हरि ॐ .... हरि ॐ .... हरि ॐ ....


रचना : अभिषेक मैत्रेय "शुभ"

Saturday, May 21, 2011

jogi re kya jadu hai tere pyar me

shiv ki jata se nikle ganga gyan jogi ke mukh se
dono karte hamko pawan mukti dilaye dukh se
jogi re kya jadu hai tere pyar me

sthawar aur jangam teerat ka hua hai mel ye nyare
jogi ko dekh ke bhaga sara dukh santaap hamara
jogi re kya jadu hai tere pyar me

ganga deti sheetalta aur jogi shanti dete
dono hi dukh paap hare badle me kuch nahi lete
jogi re kya jadu hai tere pyar me

ganga ki dhara hari ka dwara aur jogi ka satsang
jo bhi aaya usko lagega premabhakti ka rang
jogi re kya jadu hai tere pyar me

Kisi ke paas kuch na ho to hansti hai ye dunia
kisi ke paas sab kuch ho to jalti hai ye dunia
Tumhare gyan ko Jogi tarasti hai ye dunia
Jogi re kya jadu hai tere pyar me

itna alokik itna anokha sukh jogi se hi milta
hum bhakto ko jogi ka dwara vaikunth jaisa lagta
Jogi re kya jadu hai tere pyar me

ons ki boondo ko peekar to pyas nahi hai bujhti
jag bhi ons ki boondo jaisa jogi se shiksha milti
Jogi re kya jadu hai tere pyar me

har dil me baste ye jogi chahat yehi hai sabki
sab devo ke darsha hote chavi niharu jo inki
Jogi re kya jadu hai tere pyar me

aisa tejaswi divya nirala jogi na hamne dekha
ek hi sthan pe sab milta hai dwar hai aisa anokha
Jogi re kya jadu hai tere pyar me

bante hai rehmat ke khajane bhar bhar ke bhakto ko
jogi ke roop me hamne paya dhara pe hi hai rab ko
Jogi re kya jadu hai tere pyar me

teri bhakti bina jogi koi bhi din na beete
pake amrit ke sagar ko na hum rah jaye reete
khudi ko tum pe ware hum bhale hare ya jeete
Jogi re kya jadu hai tere pyar me

tare chahe kitne bhi ho chand to chand hi rehta
jagme najare kai hain roshan koi na jogi jaisa
Jogi re kya jadu hai tere pyar me

My compositions added to "Jogi Re..."
Guru ka satsang, Ganga kinara, Hari ka hai dwara
aisa sunder mauka pakar, hua jeevan dhanya hamara
Jogi re kya jadoo hai tere pyar me......

kahne wale kahte rahenge, unka kaam hai kehna
humko to Guruvar ki chaya me sada hai rehna
Jogi re kya jadoo hai tere pyar me......

Saturday, April 09, 2011

Ravivari Saptami: 10 & 24 April 2011.
इन तिथियों पर जप/ध्यान करने का वैसा ही हजारों गुना फल होता है जैसा की सूर्य/चन्द्र ग्रहण में जप/ध्यान करने से होता हैl
घातक बीमारी दूर करने के लिए :

रविवार सप्तमी के दिन अगर कोई नमक मिर्च बिना का भोजन करे और सूर्य भगवान की पूजा करे , तो उस घटक बीमारियाँ दूर हो सकती हैं , अगर बीमार व्यक्ति न कर सकता हो तो कोई ओर बीमार व्यक्ति के लिए यह व्रत करे |

सूर्य पूजन विधि :

१) सूर्य भगवान को तिल के तेल का दिया जला कर दिखाएँ , आरती करें |

२) जल में थोड़े चावल ,शक्कर , गुड , लाल फूल या लाल कुमकुम मिला कर सूर्य भगवान को अर्घ्य दें |

सूर्य अर्घ्य मंत्र :

1. ॐ मित्राय नमः।

2. ॐ रवये नमः।

3. ॐ सूर्याय नमः।

4. ॐ भानवे नमः।

5. ॐ खगाय नमः।

6. ॐ पूष्णे नमः।

7. ॐ हिरण्यगर्भाय नमः।

8. ॐ मरीचये नमः।

9. ॐ आदित्याय नमः।

10. ॐ सवित्रे नमः।

11. ॐ अकीय नमः।

12. ॐ भास्कराय नमः।

13. ॐ श्रीसवितृ-सूर्यनारायणाय नमः।
सत्संग सुनते सुनते एक एक क्षण अश्वमेध यज्ञ के पुण्य की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं, सत्संग मुक्ति देता है। इतना ही नहीं, सत्संग हृदय में प्यार पैदा करता है। इतना ही नहीं, सत्संग श्रेष्ठ नागरिक बनाता है।

सत्संग जीवन्मुक्त होने का मार्ग बताता है। इतना ही नहीं, व्यवहार में उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने की मास्टर की सत्संग तुम्हारे हाथ में धर देता है। जब, वहाँ जिस कुँजी की जरूरत पड़े वह मिल जाया करती है। यह सब सत्संग की बलिहारी है।

वेदान्त केवल जंगलों में जाकर पकाने की विद्या नहीं है। यह तो तुम्हारे अपने घर के चूल्हे पर पकाने की विद्या है। .......... पूज्यपाद श्रीबापूजी
विनम्रता जो दूसरों की सेवा करता है, दूसरों के अनुकूल होता है, वह दूसरों का जितना हित करता है उसकी अपेक्षा उसका खुद का हित ज्यादा होता है।अपने से जो उम्र से बड़े हों, ज्ञान में बड़े हो, तप में बड़े हों, उनका आदर करना चाहिए। जिस मनुष्य के साथ बात करते हो वह मनुष्य कौन है यह जानकर बात करो तो आप व्यवहार-कुशल कहलाओगे। किसी को पत्र लिखते हो तो यदि अपने से बड़े हों तो 'श्री' संबोधन करके लिखो। संबोधन करने से सुवाक्यों की रचना से शिष्टता बढ़ती है। किसी से बात करो तो संबोधन करके बात करो। जो तुकारे से बात करता है वह अशिष्ट कहलाता है। शिष्टतापूर्वक बात करने से अपनी इज्जत बढ़ती है। जिसके जीवन में व्यवहार-कुशलता है, वह सभी क्षेत्रों में सफल होता है। जिसमें विनम्रता है, वही सब कुछ सीख सकता है। विनम्रता विद्या बढ़ाती है। जिसके जीवन में विनम्रता नहीं है, समझो उसके सब काम अधूरे रह गये और जो समझता है कि मैं सब कुछ जानता हूँ वह वास्तव में कुछ नहीं जानता।
सज्जनता और दुर्जनता, ये अन्तःकरण के धर्म हैं। इससे भी पार अपने सोऽहं स्वरूप में जग जाओ। साधक का यह अभ्यास दृढ़ नहीं है, आत्म-अभ्यास को भूल जाता है तो संसार खोपड़ी में चढ़ बैठता है। चिन्ता दिल-दिमाग का कब्जा ले लेती है। भय पीठ पर सवार हो जाता है। काम का कीड़ा भीतर घुस जाता है और बुद्धि को कुरेदने लगता है। आत्म-अभ्यास कमजोर है इसीलिए सारी मुसीबतें आ जाती हैं। आत्म-अभ्यास दृढ़ है तो मुसीबतें दूर भागेगी। जहाँ पोल होती है वहीं बजता है।.......... पूज्यपाद श्रीबापूजी

Wednesday, November 10, 2010


सात दुर्लभ प्रश्न और उनके दुर्लभ उत्तर ! सबसे बड़ा दुख ! सबसे बड़ा सुख ! सबसे दुर्लभ शरीर ! सबसे बड़ा पुण्य ! सबसे बड़ा पाप ! संत-असंत का भेद और मानस रोग !
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥1॥
पक्षीराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए॥1॥

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥2॥
हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिए॥2॥

संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला॥3॥

संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए। फिर कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान्‌ पुण्य कौन सा है और सबसे महान्‌ भयंकर पाप कौन है॥3॥

मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती॥4॥
फिर मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है। (काकभुशुण्डिजी ने कहा-) हे तात अत्यंत आदर और प्रेम के साथ सुनिए। मैं यह नीति संक्षेप से कहता हूँ॥4॥

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥5॥
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥6॥
ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं॥6॥

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥7॥

दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत्‌ में सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है॥7॥

संत सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥8॥

संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए। कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)॥8॥

सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाई बिपति सहि मरई॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥9॥
किंतु दुष्ट लोग सन की भाँति दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें बाँधने के लिए) अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं॥9॥

पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥10॥
वे पराई संपत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भाँति जगत के दुःख के लिए ही होता है॥10॥

संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा॥11॥

और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चंद्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है। वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है॥11॥

हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि॥12॥

शंकरजी और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत्‌ में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है॥12॥

सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥13॥

जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है॥13॥

सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥14॥

जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं॥14॥

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥

सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥15॥

प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥16॥

यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात्‌ वे अपार हैं)॥16॥

चौपाई :
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥
ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है॥17॥

अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥
अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥18॥

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥19॥
मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ॥19॥

दोहा :
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121 क॥
एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥121 (क)॥

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥121 ख॥
नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते॥121 (ख)॥

चौपाई :
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥1॥
इस प्रकार जगत्‌ में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं। मैंने ये थो़ड़े से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही॥1॥

जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥2॥
प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषय रूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं॥2॥

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥3॥
यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥3॥

चौपाई :
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥
श्री रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते॥4॥

जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥5॥
हे गोसाईं! मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आशा रूपी दुर्बलता मिट जाए॥5॥

बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥6॥
इस प्रकार सब रोगों से छूटकर जब मनुष्य निर्मल ज्ञान रूपी जल में स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है। शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचार में परम निपुण जो मुनि हैं,॥6॥

सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा॥
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥7॥
हे पक्षीराज! उन सबका मत यही है कि श्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम करना चाहिए। श्रुति, पुराण और सभी ग्रंथ कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की भक्ति के बिना सुख नहीं है॥7॥

कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥8॥
कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आवें, बाँझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाश में भले ही अनेकों प्रकार के फूल खिल उठें, परंतु श्री हरि से विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता॥8॥

तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना॥
अंधकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै॥9॥
मृगतृष्णा के जल को पीने से भले ही प्यास बुझ जाए, खरगोश के सिर पर भले ही सींग निकल आवे, अन्धकार भले ही सूर्य का नाश कर दे, परंतु श्री राम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता॥9॥

हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥10॥
बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाए (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जाएँ), परंतु श्री राम से विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता॥10॥

दोहा :
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न तव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥122 क॥
जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल निकल आवे, परंतु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धांत अटल है॥122 (क)॥

मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥122 ख॥
प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचार कर चतुर पुरुष सब संदेह त्यागकर श्री रामजी को ही भजते हैं॥122 (ख)॥

श्लोक :
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥122 ग॥
मैं आपसे भली-भाँति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूँ- मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्री हरि का भजन करते हैं, वे अत्यंत दुस्तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर जाते हैं॥122 (ग)॥

चौपाई :
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा॥
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी॥1॥
हे नाथ! मैंने श्री हरि का अनुपम चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप से कहा। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी ! श्रुतियों का यही सिद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥1॥
राजा चंद्रसेन एक न्यायप्रिय शासक था। वह कभी किसी के साथ अन्याय नहीं होने देता था। एक बार पड़ोसी राजा ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया।चंद्रसेन स्वयं पड़ोसी राजा से भिड़ गया। थोड़ी ही देर में चंद्रसेन ने उसे जमीन पर गिरा दिया और उसके सिर पर तलवार का वार करने ही वाला था कि दूसरे राजा के मुंह से कुछ अपशब्द निकल गए। अपशब्द सुनकर चंद्रसेन ने अपनी तलवार रोक ली और कुछ सोचते हुए उसे म्यान में रख लिया। वहां उपस्थित सभी सैनिक आश्चर्य में पड़ गए।
वे चंद्रसेन से बोले, 'आपने अपना हाथ क्यों रोक लिया। इसे मार डालिए। इसे जिंदा छोड़ना ठीक नहीं होगा।'सैनिकों की बात सुनकर चंद्रसेन ने कहा, 'मैं युद्ध अपने देश की रक्षा के लिए लड़ रहा हूं। यदि मैं इसी समय इसे मार देता हूं तो मुझे अफसोस नहीं होगा मगर इसने मुझे अपशब्द कहे, जिसके कारण मेरी लड़ाई हमारे राष्ट्र की न होकर व्यक्तिगत हो गई। देश रक्षा के लिए मैं अपने पूरे युद्ध कौशल से लड़ रहा था, किंतु व्यक्तिगत होने पर मैं गुस्से में आ गया। यदि मैं इसे मार देता तो मैं स्वार्थी कहलाता।' इतना कहकर चंद्रसेन ने दूसरे राजा को तलवार दी और युद्ध करने को कहा। लेकिन उस राजा ने लड़ने से इनकार कर दिया और उसके आगे सिर झुकाकर कहा, 'आपने अपने उच्च विचारों से मुझे जीत लिया है। अब आप चाहे तो मुझे मार दें।' चंद्रसेन ने उस पर वार नहीं किया और उसे क्षमा कर दिया। वह राजा सेना सहित लौट गया।

Wednesday, July 21, 2010

भजन : छवि तेरी प्रगट होती

मेरी गिनती मेरी विनती, तुम्ही से ही शुरू होती
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

सुखी जीवन के तुम आधार, सदा करते हो भाव से पार
चरण धूलि जो आँखों में, लगा लूँ तो बने ज्योति
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

गुरुवर आपने अपने ह्रदय में, एक जगह दे दी
बड़ी किरपा की वरना तो, मेरी किस्मत ही थी सोती
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

करूँ चिंतन सदा तेरा, बने ऐसा ही मन मेरा
ह्रदय बन जाये गुरुद्वारा, वाणी हो जाये गंगोत्री
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

गुरुवर परम हितैषी हैं, यह वेदों ने बताया है
दिया “शुभ” आत्म का आनंद, किया कंकड से मुझे मोती
जहाँ तक जाए मेरी दृष्टि, छवि तेरी प्रगट होती....

रचना: अभिषेक मैत्रेय “शुभ”

Thursday, July 01, 2010

इस संसार में मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई पशु-पक्षी खतरनाक नही। मनुष्य की हानि जितनी मनुष्य के हाथों हुई है उतनी पशुओं के हाथों नही हुई हैं। कोई भी पशु-पक्षी इतना भयानक नही है जितना की मनुष्य भयानक है खूंखार है। कारण एक पशु सिर्फ़ एक पशु की ही बराबरी रखता है और मनुष्य अनेक पशु की बराबरी रखता है। इसीलिये मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी खतरनाक नही हैं। इसीलिये जितनी बंदिश मनुष्य के लिये रखनी पडती है उतनी किसी पशु-पक्षी के लिये नही रखनी पड़ती हैं। ये जो बम, बन्दूक, तोप, टैंक, परमाणु बम बनाये गये है ये किसी पशु-पक्षी को मारने के लिये नही बनाये गये हैं, ये मनुष्य को मारने के लिये ही हैं। क्योकि जैसे-जैसे मनुष्य खतरनाक होता गया हथियार भी खतरनाक होते गये। जब मनुष्य सहज और सरल जी रहा था। तब उसका सबसे बडा हथियार लाठी थी। जब उसकी शान्ति थोडी भंग हुई तो लाठी ने बरछे का रूप ले लिया। जो थोडा और शान्ति भंग हुई तो तीर-कमान बन गये। फिर बन्दूक आयी, फिर तोपें आई, फिर टैंक आये। अब आज मनुष्य इतना खतरनाक हो गया है कि उसको काबू में रखने के लिये हाईड्रोजन बम बन गये हैं। अनगिनत ऐसे उदाहरण मिलते है कि मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी पशु खतरनाक नही हैं। रात के समय तकरीबन-तकरीबन सारे बाजार बंद हो जाते हैं दुकानों में बडे-बडें ताले लग जाते हैं एक नही कई-कई ताले लगाये जाते हैं। दुकानदार से कोई पूछे कि जो तुने ये ५-१० ताले लगाये हैं वो किस लिये ? पशु से डर है, पक्षी से डर हैं, कीडीयों का डर है, मकोंडों का डर हैं, बैलों का डर हैं, आखिर तुझें किसका डर हैं ? तब वह एक ही जवाब देता है कि किसी पशु का डर नही है सिर्फ़ मनुष्य का ही डर हैं कही कुछ चुराकर न ले जाये। आदमी आदमी से जितना परेशान है उतना किसी से भी परेशान नही हैं। इससे इतना तो पता चलता है कि मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी खतरनाक नही हैं। किसी पशु में जब खूँखारीपना आता है तो वो ज्यादा से ज्यादा १-२-३ के ऊपर हमला करके उनको मौत के घाट उतारता हैं लेकिन जब मनुष्य में पशु वृत्तियाँ प्रधान रूप लेती हैं, जब खूँखारीपना आता है तो वो बस्ती की बस्तियाँ उजाड़ देता हैं। शहरों के शहर खाख में मिला देता हैं। कई बार तो देश के देश बरबाद कर देता हैं। मनुष्य के अन्दर इतनी पशु वृत्तियाँ पैदा हो गयी हैं। आज कल सुनने में आया है कि देश-विदेशों में चर्चा हो रही है कि पशुओं की नस्ले खत्म हो रही हैं इनको कैसे बचाया जाये उनका उपाय ढूँढा जा रहा हैं। कही ऐसा ना हो कि वो जानवर बिलकुल ही खत्म ना हो जायें, परन्तु मैं तो सोचता हूँ कि उन जानवरों की तो हमको जरुरत ही नही हैं। क्युँ जब मनुष्य ही जानवरों की तरह जीने लगा हैं तो फिर जानवरों की जरुरत ही नही हैं। जो मनुष्य शहरों को ही जंगल बना ले तो फिर जंगल की भी जरुरत नही हैं क्योंकि जंगलों के अन्दर भी पशु इतने नही लडते हैं जितने शहरों में मनुष्य में लडते हैं। घोसलों में भी पक्षी इतने नही लडते है जितने अपने घर के अन्दर मनुष्य ने क्लेश, अनर्थ मचाया हुआ हैं। लडाई-झगडे की अगर परकाष्ठा देखनी है तो मनुष्यों के बीच देखने को मिलती है, पशुओं की दुनियाँ में इतनी नही। पक्षीयों की दुनियाँ में इतनी नही।
मनुष्य चिडियाघर में जाता हैं पशु-पक्षीयों को देखने के लिये और वहाँ बहुत से पशु-पक्षीयों को देखता हैं, अगर वो कभी अपनी सूरत को अपनी अंतराआत्मा में ले जाये तो उसे पशुओं की अनेक वृत्तियाँ अपने अन्दर नजर आयेगी। आकार या स्वरूप से पशु अन्दर नही बैठे हैं परन्तु सूरत करके, संस्कार करके, स्वभाव करके ये सारे पशु मनुष्य के अन्दर बैठे हैं। कौन-कौन से पशु इनमें प्रमुख हैं
उदयान बसनम संसारं सन बन्दी स्वान, स्याल, खरें ।
ऐं मनुष्य जो तेरे संबन्धी है वो है स्वान माने कुत्ता, सियाल माने गीदड़ और खरे मतलब गधा। ये तेरे रिश्तेदार हैं
अब ये पढों तो आपको क्रोध आयेगा कि मनुष्य के सम्बन्धी कुत्ते, सियाल और गधे हैं। हकीकत ये है कि मनुष्य का असली संबधी या रिश्तेदार तो उसका स्वभाव ही होता है और उसके स्वभाव में ही ये तीनों बैठें है।
सियाल की बात करे तो उसके रोम रोम में आलस्य भरा पडा हैं और डर हैं। तो जो बन्दा आठों पहर डरा ही हुआ हैं कि मौत का डर है, मुझे लूट लेगा, मुझसे मेरा सब कुछ छीन लेगा, बिमारी का डर, मान-सम्मान का डर और आलसी हैं वो चाहता है कि वो कुछ ना करे लेकिन उसको सब कुछ मिल जायें फिर उसके लिये चाहे कुछ भी करना पडे झूठ, फरेब, एक दूसरे को लडायें कैसे भी करें लेकिन मुझे सब कुछ मिले ये वृत्ति जिसके अन्दर है वो मनुष्य होते हुए भी सियाल रूप है।
कबीरदास जी का कहना हैं कि
कहत कबीर राम गुण गाओं, आप न डरों औरों न डराओं ।
राम के गुण गाते-गाते मैं इस हालत में पहुँच गया कि न किसी से डरता हूँ और ना किसी को डराता हूँ।
गुरु तेगबहादुर जी कहते हैं कि
भय काहू को देत है, न भय मानत को आन, कह नानक सुन रे मना, ज्ञानी ते बखान
मनुष्य के अन्दर कुत्ता भी हैं, कुत्ते की फितरत क्या हैं ? कि कुत्ता कुत्ते को पसन्द नही करता हैं। कुत्ता कुत्ते पर भोंकता हैं। कुत्ता कुत्ते पर टूट पडता हैं। हम देख रहे है कि कुत्ता कुत्ते का बैरी है। पर जो मनुष्य भी मनुष्य का बैरी होये तो, जब मनुष्य को मनुष्य ही अच्छे न लगें और मनुष्य मनुष्यों पर ही आवाजें करें तो मनुष्य और कुत्ते में क्या फर्क रह गया। ये वृत्ति कूकर वृत्ति हैं जो आज के मनुष्य में विशेष रूप में दिख रही हैं और आज एक बात और आश्चर्य की है कि मनुष्य मनुष्य को अपने पास बैठाने से कतराता हैं लेकिन कुत्ते को अपनी गोद में बडे प्यार से बैठाता है अपने साथ सुलाता है और अपने साथ घुमाता भी हैं। ऐसा क्युँ हैं लगता है कि अन्दर भी स्वभाव कुत्ते का और बाहर भी कुत्ते का संग दोनो का साथ हो गया हैं। वरना अगर मनुष्य के अन्दर मनुष्यता होती तो उसको मनुष्य के साथ भी प्यार होना चाहिये था, उसके साथ भी सहानुभूति होनी चाहिये थी, लेकिन नही है इससे साफ़ जाहिर होता है कि मनुष्य के अन्दर पशु वृतियाँ बहुत बढ़ गयी हैं। मनुष्य मनुष्य को गलत बोले, मनुष्य मनुष्य को बिना सोचे समझे दोष लगाये वह भी कूकर वृति हैं और मनुष्य मनुष्य को जख्मी कर जाये तो वो भी कूकर वृति हैं।
एक बार एक गरीब लकडहारा लकडी काट कर बाजार गया तो उसको रास्ते में एक कुत्ते ने काट लिया जब वह घर आया तो उसकी बच्ची ने कुत्ते के काटे का जख्म देख कर रोना शुरु कर दिया और पूछा कि अब्बा ! यह क्या हुआ तो उसने बोला कि बेटा कुत्ते ने काट लिया तो उसकी बेटी ने कहा कि जब उसने काटा तो फिर आपने उसको क्यों नही काटा क्या आपके पास तेज दाँत नही हैं। तब उसका पिता बोला कि बेटा ये काम तो कुत्ते का हैं किसी मनुष्य का नही अगर मनुष्य भी यह काम करने लगा तो फिर मनुष्य और कुत्ते में क्या फ़र्क रह जायेगा।
लेकिन आज यह अक्सर देखा गया हैं कि कोई किसी पर बिना किसी बात के चिल्लाता हैं, बिना सोचे समझे दोष लगाता हैं, उसे नफ़रत भरी निगाहों से देखता हैं और दूसरों को भी यह करने को बोलता है यह सब कूकर वृत्ति हैं
मनुष्य के अन्दर गधा भी हैं। गधा भारत के अन्दर बवकूफ़ का चिन्ह माना जाता हैं। ये धोबी का गधा या कुम्हार का गधा ये गधे असली गधे नही है असली गधा तो कोई और हैं। इस पर नानक जी कहते हैं।
नानक ते नर असल खर, जो बिन गुण गर्व करें
बिना गुण के आठों पहर मान को लिये जो नर फूला रहता हैं अहंकार को लिये फूला रहता है नानक जी उसके लिये कहते है कि वो असल में गधा हैं। क्योंकि इसको पता ही नही है कि तेरे आसरे पर जग नही खडा है बल्कि तु खुद किसी के आसरे पर खडा हैं। तू कृत है कर्ता नही । पर मनुष्य ने अहंकार की इतनी वृद्धि कर ली है कि उसका कोई मुआवजा ही नही हैं। ये गधे की वृत्ति हैं।
कबीरदास जी कहते है कि मनुष्य के अन्दर भैसे की भी वृत्ति भी होती है। भैसे की वृत्ति ये होती है कि वो अमोड चलता है मतलब कि उसको किसी दिशा में मोडों तो मुडता नही। वो अपनी धुन पर चलता हैं। वो अपनी ही चाल पर चलता है फिर चाहे वो चाल गलत हो या मार्ग गलत हो पर वो रुकता नही है कोई उसको रोके पर वो रुकता नही। ये देखा गया है कि जब किसी मनुष्य को २-४ लोग समझा रहे हो कि यह गलत है शास्त्र, गुरु या महापुरुष इसकी इजाजत नही देते, समाज भी इसको ठीक नजर से नही देखता हैं। तो भी वो मनुष्य उनकी नही सुनता है और इस पर तर्क करता है कि तुम कौन होते हो मुझे बताने वाले या समझाने वाले, मैं तो जिस रास्ते चलुंगा जैसी मेरी मर्जी, तो कबीरदास जी कहते हैं कि ये भैसे की वृत्ति हैं। कि समझाने पर भी न समझना, मोडने पर भी न मुडना, और अपनी हठधर्मी कायम रखनी और उस हठधर्मी के मुताबिक चलते जाना ये भैसे की वृत्ति हैं। गलती पे गलती करते जाना, कोई रोके तो रुके ना कबीरदास जी कहते है कि ये अमोड वृत्ति भैसा हैं।
माता भैसा अमुआ जाये, कुद कुद चरे रसातल पाये
धर्म का जन्म, ज्ञान का जन्म महापुरुषों का आगमन इस वास्ते हुआ कि मनुष्य अपने अन्दर हो रही इन पशु वृत्तियों को समाप्त करे जो उसको बेचैन कर रही हैं जो उसको दुखी कर रही हैं और सादा और सरल जीवन बनाये और ये विदा होंगे प्रभु चिन्तन से, सत्संग से, जो मनुष्य महापुरुषों की बात नही मानेगा तो उसके अन्दर की ये वृत्तियाँ बढती ही जायेंगी। साधू-संतों के बिना या प्रभु भजन के बिना जीना तो ऐसा जीना है जैसे साँप जीता है। साँप का काम क्या हैं वो खाता है पीता है तो खाते-पीते उसके अन्दर जहर बनता हैं जब जहर भर जाता है तो वह डंक मारता हैं। जहर को किसी के शरीर के अन्दर प्रविष्ट कर देता है। ऐसा ही नही कि साँप डंक मारते हैं, मनुष्य भी डंक मारते है। हो सकता है कि साँप का डसा हुआ कोई बच भी जाये परन्तु मनुष्य के डंक से तो कोई बचता ही नही, मनुष्य इस तरह का जहरीला है।
बिन सिमरन जैसे सर्प अरजारी, त्यु साखत जीवे नाम बिसारी ।
बिन सिमरन डिग कर्म करास, काक बटन विष्टा में वास ॥
गुरुओं का ऐसा भी वचन है कि मनुष्य के अन्दर कौवा भी है। किस तरह पता चलेगा कि मनुष्य के अन्दर काक वृत्ति है। कौवे के मुंह में सुगन्ध नही होती कपूर नही होता, दुर्गंध ही होती हैं विष्टा होती है, हड्डी का टुकडा होता हैं। दुर्गंध उसके मुह में होगी। कौवे की बोली बडी प्रखर हैं। बडी सख्त हैं। जो बन्दा बहुत सख्त बोले, कडुवा बोले, गंदा बोले, गालियाँ ही उसके मुह पर होवे, चार गालियाँ बोल कर ही बात शुरु करता हो तो साहिबो का कहना है कि ये कौवे वाली वृत्ति हैं। बडा कडक बोलता है, बडी कसक है इसकी बोली में, बडी चोट है, फिर बोलना बडा गंदा है तो मुह में इस गन्दगी का होना ये कौए की निशानी है। जिस समय मनुष्य के अन्दर कौवे की वृत्ति प्रधान होती है उसके मुह में गन्दगी आ जाती हैं।
बिन सिमरन डिग कर्म करास, काक बटन विष्टा में वास, बिन सिमरन गर्भक की नाई, सापध थाउ भ्रष्ट फिराई।
सिमरन को छोड़ कर जीव ऐसे जीता है जैसे कुत्ता, अब जो साहिब जी बताते है वो सबसे याद रखने वाली बात है
हर के नाम बिना है सुन्दर है नकटी, ज्यु वेश्वा के घर पूत जमत है तिस नाम परयों है प्रगटी।
वेश्या का पुत्र अपना नाम नही बोल सकता है किसी महफिल के वीच उसके पिता का नाम उसको पूछो तो वो बेचारा क्या बोलेगा क्योकि वेश्या का पुत्र हैं। इसलिये महफिल उसको शर्मसार करती है। गुरु अर्जुन देव जी महाराज का कहना है कि वेश्या के पुत्र को शर्मसार मत करों। वो सिर्फ अपने शरीर के पिता को नही जानता कि कौन है? और वेश्या का पुत्र नही हैं। वास्तव में वेश्या का पुत्र वो है जो जगतपिता को नही जानता जिसको जगत पिता का बोध नही हैं। जिसने इसकी माँ को भी पैदा किया, इसके पिता को भी पैदा किया और इसको भी पैदा किया है जिसको उसका बोध नही हैं वो वास्तविक में वेश्या का पुत्र हैं। ये इल्जाम इसलिये है न कि उस वास्ते कि वो वेश्या का पुत्र हैं। कारण ये है कि जिस समय मनुष्य नाम से टूटता हैं उसी समय अनगिनत पशु वृत्तियाँ उसके अन्दर जाग्रत हो जाती हैं और मनुष्य बहुत खतरनाक हो जाता हैं। जब खतरनाक हो जाता है तो फिर इस पर बंदिशें भी लगानी पड़ती हैं।
भाई गुरुदास जी कहते हैं कि मनुष्य को जीने का ढंग कीडी से सीखनी चाहियें। क्योकि जितने तेरे अन्दर अवगुण है उतने ही गुण भी हैं कीडीयों में एक खूबी होती है कि एक चोटी सी जगह में भी बहुत सारी एक साथ रहती है और प्यार के साथ में रहती है लेकिन मनुष्य बडे घर में दो परिवारों के साथ नही रह सकता हैं कीडी का आकार बहुत छोटा हैं लेकिन दिल बहुत बडा हैं। लेकिन मनुष्य का आकार बहुत बडा है पर दिल बहुत छोटा हैं। कीडी में एक और खूबी हैं कि घी शक्कर की खुशबू उसको आ जाये तो वो चल पडती है अकेले नही सभी को साथ लेकर, दाना मुह में लेकर आती है एक जगह पर रखती है और फिर दूसरा लेने जाती है क्योकि उसको विश्वास हैं कि जो दाना मैं रख कर गयी हूँ वो मुझे मिलेगा। पर मनुष्य की दुनिया में ये विश्वास नही हैं। अगर कोई चीज बाहर रख जाये तो उसको वो वापस मिलेगी कि नही उसको विश्वास नही हैं। मिल कर रहने की जो भावना कीडीयों के अन्दर है उतनी मनुष्य के अन्दर नही हैं।
इसलिये भाई गुरुदास जी कहते है कि हे मनुष्य तू प्रभु चिन्तन कर ताकि अपने अन्दर के पशुओं को तू बाहर निकाल सकें जिस दिन ये सारे पशु तेरे अन्दर से विदा हो जायेंगे उस दिन मनुष्यता निखर जायेगी। उस दिन वो जो प्रार्थना करता है तो उसके अन्दर देवत्व झलकता है। उसके अन्दर परमात्मा झलकता हैं, उसके अन्दर ईश्वर झलकता हैं। वो मनुष्य होते हुए ईश्वर की ज्योत प्रकट कर लेता हैं।
नामे नारायण नही भेद राम कबीरे भेद न पावे
मनुष्य दो जगत के बीच में है पशुओ का जगत और परमात्मा का जगत, पशुओ का जगत पीछें है और परमात्मा का जगत आगे हैं। जब पशु जगत की इच्छा मनुष्य के अन्दर जगती है तो वो दुराचारी बन जाता हैं तब वो किसी भी नियम को नही मानता परन्तु उसके अन्दर इच्छा उस प्रभु की भी हैं जो शिखर पर हैं। पशुओ का जगत नीचे है और प्रभु का जगत ऊपर हैं। मनुष्य इन दोनों के बीच में खडा हैं। कभी प्रभु की ओर खिचता है तो धर्म-मन्दिरों का रुख करता हैं। धर्म-ग्रन्थों का पाठ-पठन करता हैं। सतपुरुषों के बीच बैठता हैं और बैठकर आनंद मानता हैं। जब आनंद मना ही रहा होता है तो पशुओं के जगत का खिचाव शुरु हो जाता है क्योंकि राग-द्वेश-अहंकार उसके अन्दर आ जाते है फिर वो नीचे गिर जाता हैं। इसी तरह कभी ऊपर कभी तो कभी नीचे होता रहता है कारण कि पशुओं के जगत का अपना खिचाव है और प्रभु के जगत का अपना खिचाव हैं। सत्संग और साधना में बहुत ज्यादा जोर इसलिये दिया जाता है कि मनुष्य इस पशुओं के जगत के खिचाव से बच कर प्रभु के जगत के ओर पहुँच जाये और लीनता भी उसको इस तरह मिल जाये कि " नानक लीन भयों गोविन्द ज्यु पानी संग पानी " सरिता रेगिस्तान में भी खो सकती है और सरिता सागर में भी खो सकती हैं। सरिता अगर रेगिस्तान में खो गयी तो अपना वजूद मिटा देगी और अगर सागर में खोई तो सागर का रूप बन जायेगी। ऐसे ही मनुष्य अगर पशुओं के जगत में खो गया तो अपनी मनुष्यता खो बैठेगा और अगर परमात्मा में लीन हो गया तो परमात्मा का ही रूप हो जायेगा, ईश्वर का ही रूप हो जायेगा। और ईश्वर का रूप होने ही मनुष्य इस जगत में आया हैं।
ईश्वर को पाने के लिए, तत्त्वज्ञान पाने के लिए हमें प्रतीति से प्राप्ति में जाना पड़ेगा।

एक होती है प्रतीति और दूसरी होती है प्राप्ति। प्रतीति माने : देखने भर को जो प्राप्त हो वह है प्रतीति। जैसे गुलाब जामुन खाया। जिह्वा को स्वाद अच्छा लगा लेकिन कब तक ? जब तक गुलाब जामुन जीभ पर रहा तब तक । गले से नीचे उतरने पर वह पेट में खिचड़ी बन गया। सिनेमा में कोई दृश्य बड़ा अच्छा लगा आँखों को। ट्रेन या बस में बैठे पहाड़ियों के बीच से गुजर रहे हैं। संध्या का समय है। घना जंगल है। सूर्यास्त के इस मनोरम दृश्य को बादलों की घटा और अधिक मनोरम बना रही है। लेकिन कब तक ? जब तक आपको वह दृश्य दिखता रहा तब तक। आँखों से ओझल होने पर कुछ भी नहीं। सब प्रतीति मात्र था।

डिग्रियां मिल गई यह प्रतीति है। धन मिल गया, पद मिल गया, वैभव मिल गया यह भी प्रतीत है। मृत्यु का झटका आया कि सब मिला अमिला हो गया। रोज रात को नींद में सब मिला अमिला हो जाता है। तो यह सब मिला कुछ नहीं, मात्र धोखा है, धोखा। मुझे यह मिला.... मुझे वह मिला..... इस प्रकार सारी जिन्दगी जम्पींग करते-करते अंत में देखो तो कुछ नहीं मिला। जिसको मिला कहा वह शरीर भी जलाने को ले गये।

यह सब प्रतीति मात्र है, धोखा है। वास्तव में मिला कुछ नहीं।

दूसरी होती है प्राप्ति। प्राप्ति होती है परमात्मा की। वास्तव में मिलता तो है परमात्मा, बाकी जो कुछ भी मिलता है वह धोखा है।

परमात्मा तब मिलता है जब परमात्मा की प्रीति और परमात्म-प्राप्त, भगवत्प्राप्त महापुरुषों का सत्संग, सान्निध्य मिलता है। उससे शाश्वत परमात्मा की प्राप्ति होती है और बाकी सब प्रतीति है। चाहे कितनी भी प्रतीति हो जाये आखिर कुछ नहीं। ऊँचे ऊँचे पदों पर पहुँच गये, विश्व का राज्य मिल गया लेकिन आँख बन्द हुई तो सब समाप्त।

प्रतीति में आसक्त न हो और प्राप्ति में टिक जाओ तो जीते जी मुक्त हो।

प्रतीति मात्र में लोग उलझ जाते हैं परमात्मा के सिवाय जो कुछ भी मिलता है वह धोखा है। वास्तविक प्राप्ति होती है सत्संग से, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के संग से।

महावीर के जीवन में भी जो प्रतीति का प्रकाश हुआ वह तो कुछ धोखा था। वे इस हकीकत को जान गये। घरवालों के आग्रह से घर में रह रहे थे लेकिन घर में होते हुए भी वे अपनी आत्मा में चले जाते थे। आखिर घरवालों ने कहा कि तुम घर में रहो या बाहर, कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर एकान्त में चले गये। प्रतीति से मुख मोड़कर प्राप्ति में चले गये।
ईश्वरीय विधान में हम जितना अडिग रहते हैं उतनी ही प्रकृति अनुकूल हो जाती है। ईश्वरीय विधान में कम अडिग रहते है तो प्रकृति कम अनुकूल रहती है और ईश्वरीय विधान का उल्लंघन करते हैं तो प्रकृति हमें डण्डे मारती है।

जब-जब दुःख आ जाय, चिन्ता आ जाय, शोक आ जाय, भय आ जाय तो उस समय इतना तो जरूर समझ लें कि हमने ईश्वरीय विधान का कोई-न-कोई अनादर किया है। ईश्वर अपमान कराके हमें समतावान बनाना चाहते हैं और हम अपमान पसन्द नहीं करते हैं। यह ईश्वर का अनादर है। ईश्वर हमें मित्र देकर उत्साहित करना चाहते हैं लेकिन हम मित्रों की ममता में फँसते हैं इसलिए दुःख होता है। ईश्वर हमें धन देकर सत्कर्म कराना चाहते हैं लेकिन हम धन को पकड़ रखना चाहते हैं इसलिए 'टेन्शन' (तनाव) बढ़ जाता है। ईश्वर हमें कुटुम्ब-परिवार देकर इस संसार की भूलभुलैया से जागृत होने को कह रहे हैं लेकिन हम खिलौनों से खेलने लग जाते हैं तो संसार की ओर से थप्पड़ें पड़ती हैं।

ईश्वरीय विधान हमारी तरक्की.... तरक्की.... और तरक्की ही चाहता है। जब थप्पड़ पड़ती है तब भी हेतु तरक्की का है। जब अनुकूलता मिलती है तब ईश्वरीय विधान का हेतु हमारी तरक्की का है। जैसे माँ डाँटती है तो भी बच्चे के हित के लिए और प्यार-पुचकार करती है तो भी उसमें बच्चे का हित ही निहित होता है। ईश्वरीय विधान के अनुसार हमारी गलती होती है तो माँ डाँटती है, गलती न हो इसलिए डाँटती है।

जैसे माँ का, बाप का व्यवहार बच्चे के प्रति होता है ऐसे ही ईश्वरीय विधान का व्यवहार हम लोगों के प्रति होता है। यहाँ के विधान बदल जाते हैं, नगरपालिकाओं के विधान बदल जाते हैं, सरकार के कानून बदल जाते हैं लेकिन ईश्वरीय विधान सब काल के लिए, सब लोगों के लिए एक समान रहता है। उसमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, अपना पराया नहीं है, साधु-असाधु नहीं है। ईश्वरीय विधान साधु के लिए भी है और असाधु के लिए भी है। साधु भी अगर ईश्वरीय विधान साधु के लिए भी है और असाधु के लिए भी है। साधु अगर ईश्वरीय विधान के अनुकूल चलते हैं तो उनका चित्त प्रसन्न होता है, उदात्त बनता है। अपने पूर्वाग्रह या दुराग्रह छोड़कर तन-मन-वचन से प्राणिमात्र का कल्याण चाहते हैं तो ईश्वरीय विधान उनके अन्तःकरण में दिव्यता भर देता है। वे स्वार्थकेन्द्रित हो जाते हैं तो उनका अन्तःकरण संकुचित कर देता है।
अनेक संतों, ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जन्म की बड़ी महिमा गायी है। भगवान श्रीराम ने भी कहाः बड़े भाग मानुष तन पावा। देवयोनियों में सिर्फ भोग-सामग्रियाँ हैं। पशुयोनियों में दुःख और मूढ़ता है। एक मनुष्ययोनि ही ऐसी है, जिसमें सब दुःखों से सदा के लिए छुटकारा पाने का अवसर मिलता है।

सारे दुःखों का मूल कारण आत्म-अज्ञान है। इस अज्ञान को मिटाने के लिए आत्मविचार करो। स्वयं से बार बार पूछो कि 'मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? और कहाँ जाना है ?' इस प्रकार आत्मचिंतन करते-करते अज्ञान कम होने लगेगा और आपका वास्तविक सुख प्रकट होने लगेगा।

जगत के पदार्थों की तृष्णा मत करो। तृष्णा का पेट बहुत बड़ा होता है, वह कभी नहीं भरता। तृष्णा को संतोष से मिटाओ। यथाप्राप्त में संतोष और ईश्वरप्राप्ति की इच्छा यह परम कल्याण का मार्ग है। जैसे आकाश प्रत्येक स्थान पर है, ऐसे ही ईश्वर सर्वत्र है. उसकी अपार शक्ति हर जगह भरपूर है। आवश्यकता है ऐसी दृष्टि की जो उसे पहचान सके। संत नामदेव ने कुत्ते में भगवान का दर्शन किया। उसे घी और रोटी खिलायी। चित्त की सब इच्छाएँ भगवान को अर्पित कर दो। जब घोड़े पर सवार हो गये तो फिर इच्छारूपी बोझा अपने सिर पर क्यों रहने देते हो ? निर्वासनिक होकर सत्कर्म करो। ऐसा करने पर परमात्मा स्वयं तुम्हारे पास दौड़ता हुआ आयेगा।

प्रतिदिन रात को सोने से पहले और सुबह उठते ही भगवान से प्रार्थना करो। भगवन्नाम का जप करो। जो भगवान से प्रेम करता है, उसके लिए भगवान भी कष्ट सहन करते हैं। जिसकी भगवान में प्रीति है वह उनके उस धाम में पहुँचेगा, जहाँ पहुँचने पर फिर से जन्म-मृत्यु के महादुःख को नहीं सहना पड़ता।

भगवान का स्मरण करते हुए प्रतिदिन अपने व्यवहार में सुधार, पवित्रता और विवेक को बढ़ाओ। आहार, निद्रा, भोग आदि में मनुष्य और पशु में समानता है। उन्हें संयोग और वियोग पर होने वाले सुख-दुःख की अवस्था भी दोनों में है। फिर भी मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है, ऐसा क्यों ? क्योंकि उसमें एक ऐसी विशेष शक्ति है जो किसी भी दूसरे प्राणी में नहीं है। वह है विवेकशक्ति। इसके प्रभाव से मनुष्य यह जान सकता है कि सत्य क्या है ? मैं कौन हूँ ? ....परंतु यदि मनुष्य इस विवेकशक्ति का आदर नहीं करता और भोगों में ही अपने जीवन को समाप्त कर देता है तो फिर उसमें और पशु पक्षियों में कोई विशेष अंतर नहीं है। उसकी शारीरिक रचना भले भिन्न हो फिर भी वह पशु ही है।

जिसके पास विवेक नहीं है वह कभी भी पूर्ण सफल और सुखी नहीं हो सकता। सत्-असत् को पहचान कर सत् को अपनाओ। मैं देह हूँ.... संसार की वस्तुएँ मेरी हैं....यह विचार असत् है। इस मिथ्या अभिमान से सत् में स्थिति नहीं होगी। कैसी भी चिंता न करो क्योंकि चिंता चिता से बढ़कर है। चिता तो मुर्दे को जलाती है परंतु चिंता जीवित मनुष्य को ही भस्म कर देती है।

भगवान का नाम जपने से मंगल होता है क्योंकि भगवान मंगलस्वरूप हैं। जैसी प्रीति संसार के नश्वर पदार्थों में रखते हो, ऐसी यदि शाश्वत परमात्मा में रखोगे तो संसारसागर को सुगमता से पार कर लोगे। गृहस्थाश्रम में नीति व मर्यादा के मार्ग पर चलने से सुख प्राप्त होता है।

साधक को चाहिए कि वह अपने विवेक का आधार लेकर यह बात समझे कि उसे मनुष्य शरीर क्यों मिला है और उसका सदुपयोग कैसे किया जाय ? यदि विवेक को आगे रखकर संसार में रहोगे तो संसार में जो सार वस्तु है उस परमानंदस्वरूप परमात्मा को, वास्तविक सुख को पाने में सफल हो जाओगे।

Wednesday, June 02, 2010

क्या आप अपने-आपको दुर्बल मानते हो ? लघुताग्रंथी में उलझ कर परिस्तिथियों से पिस रहे हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठे हो ?

…तो अपने भीतर सुषुप्त आत्मबल को जगाओ | शरीर चाहे स्त्री का हो, चाहे पुरुष का, प्रकृति के साम्राज्य में जो जीते हैं वे सब स्त्री हैं और प्रकृति के बन्धन से पार अपने स्वरूप की पहचान जिन्होंने कर ली है, अपने मन की गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर जिन्होंने फेंक दी हैं, वे पुरुष हैं | स्त्री या पुरुष शरीर एवं मान्यताएँ होती हैं | तुम तो तन-मन से पार निर्मल आत्मा हो |

जागो…उठो…अपने भीतर सोये हुये निश्चयबल को जगाओ | सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को विकसित करो |
आत्मा में अथाह सामर्थ्य है | अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके | अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके |

भौतिक जगत में वाष्प की शक्ति, ईलेक्ट्रोनिक शक्ति, विद्युत की शक्ति, गुरुत्वाकर्षण की शक्ति बड़ी मानी जाती है लेकिन आत्मबल उन सब शक्तियों का संचालक बल है |

आत्मबल के सान्निध्य में आकर पंगु प्रारब्ध को पैर मिल जाते हैं, दैव की दीनता पलायन हो जाती हैं, प्रतिकूल परिस्तिथियाँ अनुकूल हो जाती हैं | आत्मबल सर्व रिद्धि-सिद्धियों का पिता है |
बालक सुधरे तो जग सुधरा। बालक-बालिकाएँ घर, समाज व देश की धरोहर हैं। इसलिए बचपन से ही उनके जीवन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। यदि बचपन से ही उनके रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल, शिष्टता और सदाचार पर सूक्ष्म दृष्टि से ध्यान दिया जाय तो उनका जीवन महान हो जायगा, इसमें कोई संशय नहीं है। लोग यह नहीं समझते कि आज के बालक कल के नागरिक हैं। बालक खराब अर्थात् समाज और देश का भविष्य खराब।

बालकों को नन्हीं उम्र से ही उत्तम संस्कार देने चाहिए। उन्हें स्वच्छताप्रेमी बनाना चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त में उठना, बड़ों की तथा दीन-दुःखियों की सेवा करना, भगवान का नामजप एवं ध्यान-प्रार्थना करना आदि उत्तम गुण बचपन से ही उनमें भरने चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त में उठने से आयु, बुद्धि, बल एवं आरोग्यता बढ़ती है। उन्हें सिखाना चाहिए कि खाना चबा-चबाकर खायें। समझदारों का कहना है कि प्रत्येक ग्रास को 32 बार चबाकर ही खायें तो अति उत्तम है।

उनके चरित्र-निर्माण पर विशेष ध्यान देना चाहिए। क्योंकि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ-कुछ गया परंतु चरित्र गया तो सब कुछ गया। यह चरित्र ही है जिससे दो पैरवाला प्राणी मनुष्य कहलाता है। सिनेमा के कारण बालकों का चरित्र बिगड़ रहा है। यदि इसकी जगह पर उन्हे ऊँची शिक्षा मिले तो रामराज्य हो जाय। प्राचीन काल में बचपन से ही धार्मिक शिक्षाएँ दी जाती थीं। माता जीजाबाई ने शिवाजी को बचपन से ही उत्तम संस्कार दिये थे, इसीलिए तो आज भी वे सम्मानित किये जा रहे हैं।

रानी मदलसा अपने बच्चों को त्याग और ब्रह्मज्ञान की लोरियाँ सुनाती थीं। जबकि आजकल की अधिकांश माताएँ तो बच्चों को चोर, डाकू और भूत की बातें सुनाकर डराती रहती है। वे बालकों को डाँटकर कहती हैं- 'सो जा नहीं तो बाबा उठाकर ले जायेगा.... चुप हो जा नहीं तो पागल बुढ़िया को दे दूँगी।' बचपन से ही उनमें भय के गलत संस्कार भर देती हैं। ऐसे बच्चे बड़े होकर कायर और डरपोक नहीं तो और क्या होंगे ? माता-पिता को चाहिए कि बच्चों के सामने कभी बुरे वचन न बोलें। उनसे कभी विवाद की बातें न करें।

बच्चों को सुबह-शाम प्रार्थना-वंदना, जप-ध्यान आदि सिखाना चाहिए। उनके भोजन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। उन्हें शुद्ध, सात्त्विक और पौष्टिक आहार देना चाहिए तथा लाल-मिर्च, तेज मसालेदार भोजन एवं बाजारू हलकी चीजें नहीं खिलानी चाहिए। आजकल लोग बच्चों को चाट-पकौड़े खिलाकर उन्हें चटोरा बना देते हैं।

उन्हें समझाना चाहिए कि सत्संग तारता है और कुसंग डुबाता है। समय के सदुपयोग, सत्शास्त्रों के अध्ययन और संयम-ब्रह्मचर्य की महिमा उन्हें समझानी चाहिए। मधुर भाषण, बड़ों का आदर, आज्ञापालन, परोपकार, सत्यभाषण एवं सदाचार आदि दैवी संपदावाले सदगुण उनमें प्रयत्नतः विकसित करने चाहिए।

अध्यापकों को भी विद्यालय में उनका सूक्ष्म दृष्टि से ध्यान रखना चाहिए। अध्यापक के जीवन का भी विद्यार्थियों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। शिक्षक ऐसा न समझें कि पुस्तकों में लिखी पेटपालू शिक्षा देकर हमने अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिया। लौकिक विद्या के साथ-साथ उन्हें चरित्र-निर्माण की, आदर्श मानव बनने की शिक्षा भी दीजिये। आपकी इस सेवा से यदि भारत का भविष्य उज्जवल बनता है तो आपके द्वारा सुसंस्कारी बालक बनाने की राष्ट्रसेवा, मानवसेवा हो जायेगी।

विद्यालय में अच्छे बच्चों के साथ कुछ उद्दण्ड एवं उच्छ्रंखल बच्चे भी आते हैं। उन पर यदि अंकुश नहीं लगाया गया तो अच्छे बच्चे भी उनके कुसंग में आकर बिगड़ जाते है। याद रखिये 'एक सड़ा हुआ आम पूरे टोकरे के आमों को खराब कर देता है।' इसलिए ऐसे बच्चों को सुसंस्कारवान बनाना चाहिए। बालक तो गीली मिट्टी जैसे होते हैं। शिक्षक एवं माता पिता उन्हें जैसा बनाना चाहें बना सकते हैं।

बालक इंजिन के समान है तथा माता पिता एवं गुरूजन ड्राइवर जैसे हैं। अतः उन्हें ध्यान रखना चाहे कि बालक कैसा संग करता है ? प्रातः जल्दी उठता है कि देर ? कहीं वह समय व्यर्थ तो नहीं गँवाता ? उन्हें बच्चों की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक उन्नति का भी ध्यान रखना चाहिए। कई माता पिता अपने बच्चों को उल्टी सीधी कहानियो की पुस्तकें देते हैं, जिनसे बच्चों के मन, बुद्धि चंचल हो जाते हैं। उनका यह शौक उन्हें आगे चलकर गंदे उपन्यास एवं फिल्मी पत्रिकाएँ पढ़ने का आदी बना देता है और उनका चरित्र गिरा देता है।

इसलिए बच्चों को सदैव सत्संग की पुस्तकें गीता, भागवत, रामायण आदि ग्रन्थ पढ़ने के लिए उत्साहित करना चाहिए। इससे उनके जीवन में दैवी गुणों का उदय होगा। उन्हें ध्रुव, प्रह्लाद, मीराबाई आदि की इस प्रकार कथा-कहानियाँ सुनानी चाहिए, जिनसे वे भी अपने जीवन को महान बनाकर सदा के लिए अमर हो जायें।

अंत में बालकों से मुझे यही कहना है कि माता, पिता एवं गुरूजनों की सेवा करते रहें, यही उत्तम धर्म है। गरीब एवं दीन दुःखियों को सँभालते रहें तथा ईश्वर को सदैव याद रखें जिसने हम सभी को बनाया है, भले कर्म करने की योग्यताएँ दी हैं। उसे स्मरण करने से सच्ची समृद्धि की प्राप्ति होगी।
जितने बढ़े व्यक्ति को हराया जाता है, उतना ही जीत का महत्त्व बढ़ जाता है । मन एक शक्तिशाली शत्रु है । उसे जीतने के लिए बुद्धिपूर्वक यत्न करना पड़ता है । मन जितना शक्तिशाली है, उस पर विजय पाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । मन को हराने की कला जिस मानव में आ जाती है, वह मानव महान् हो जाता है ।

‘श्रीमद् भगवद् गीता’ में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछता हैः

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथी बलवद् दृढ़म् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।

‘हे श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा ही चंचल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बड़ा बलवान् है । इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ |’
(गीताः6.34)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

असंशयं महाबाहो मनो दुनिर्ग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।

‘हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है । परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास अर्थात् एकीभाव में नित्य स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से वश में होता है |’
(गीताः 6.35)

जो लोग केवल वैराग्य का ही सहारा लेते है, वे मानसिक उन्माद के शिकार हो जाते हैं । मान लो, संसार में किसी निकटवर्ती के माता-पिता या कुटुम्बी की मृत्यु हो गयी । गये श्मशान में तो आ गया वैराग्य... किसी घटना को देखकर हो गया वैराग्य... चले गये गंगा किनारे... वस्त्र, बिस्तर आदि कुछ भी पास न रखा... भिक्षा माँगकर खा ली फिर... फिर अभ्यास नहीं किया । ... तो ऐसे लोगों का वैराग्य एकदेशीय हो जाता है ।

अभ्यास के बिना वैराग्य परिपक्व नहीं होता है । अभ्यासरहित जो वैराग्य है वह ‘मैं त्यागी हूँ’ ... ऐसा भाव उत्पन्न कर दूसरों को तुच्छ दिखाने वाला एवं अहंकार सजाने वाला हो सकता है । ऐसा वैराग्य अंदर का आनंद न देने के कारण बोझरूप हो सकता है । इसीलिए भगवान कहते हैं-

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।

अभ्यास की बलिहारी है क्योंकि मनुष्य जिस विषय का अभ्यास करता है, उसमें वह पारंगत हो जाता है । जैसे – साईकिल, मोटर आदि चलाने का अभ्यास है, पैसे सैट करने का अभ्यास है वैसे ही आत्म-अनात्म का विचार करके, मन की चंचल दशा को नियंत्रित करने का अभ्यास हो जाए तो मनुष्य सर्वोपरि सिद्धिरूप आत्मज्ञान को पा लेता है ।

साधक अलग-अलग मार्ग के होते हैं । कोई ज्ञानमार्गी होता है, कोई भक्तिमार्गी होता है, कोई कर्ममार्गी होता है तो कोई योगमार्गी होता है । सेवा में अगर निष्कामता हो अर्थात् वाहवाही की आकांक्षा न हो एवं सच्चे दिल से, परिश्रम से अपनी योग्यता ईश्वर के कार्य में लगा दे तो यह हो गया निष्काम कर्मयोग ।

निष्काम कर्मयोग में कहीं सकामता न आ जाये – इसके लिए सावधान रहे और कार्य करते-करते भी बार-बार अभ्यास करे किः ‘शरीर मेरा नहीं, पाँच भूतों का है । वस्तुएँ मेरी नहीं, ये मेरे से पहले भी थीं और मैं मरूँगा तब भी यहीं रहेंगी... जिसका सर्वस्व है उसको रिझाने के लिए मैं काम करता हूँ...’ ऐसा करने से सेवा करते-करते भी साधक का मन निर्वासिक सुख का एहसास कर सकता है ।

भक्तिमार्गी साधक भक्ति करते-करते ऐसा अभ्यास करे किः ‘अनंत ब्रह्माण्डनायक भगवान मेरे अपने हैं । मैं भगवान का हूँ तो आवश्यकता मेरी कैसी? मेरी आवश्यकता भी भगवान की आवश्यकता है, मेरा शरीर भी भगवान का शरीर है, मेरा घर भगवान का घर है, मेरा बेटा भगवान का बेटा है, मेरी बेटी भगवान की बेटी है, मेरी इज्जत भगवान की इज्जत है तो मुझे चिन्ता किस बात की?’ ऐसा अभ्यास करके भक्त निश्चिंत हो सकता है ।
मरो मरो सबको कहे,मरना न जाने कोई.....
एक बार ऐसा मरो ,फिर मरना न होए...........

"आज मजा आया.....आज उसकी बंदगी करने में मजा आ गया,आहहहा !!!!!!!!! रोज ऐसी मजा आया करे.........पर रोज ऐसे नहीं होता है......
जिस समय सुषुम्ना नाडी का द्वार खुल्ला होगा तब ही ऐसी मजा आयेगी.........बुधि में सत्वगुण हो जिस समय तब ही ऐसा मजा आयेगा.......
ये मजा आना और न आना ये आत्मा का स्वाभाव है......बस कम तमाम हो जाये इससे पहले उसको पालो............काम बन जाएगा.......
फिर ये मजा प्रतिदिन की हो जाएगी...........

निश्वासे नहीं विश्वास:
इस स्वाश की कोई गारंटी नहीं है........एक एक करके काम हो रहा है................उसको सही इस्तेमाल में लाओ.......

अहमदाबाद वाले कहेंगे की मुंबई में सुख है...मुंबई वाले कहेंगे की कोलकत्ता में सुख है........कोलकत्ता वाले कहेंगे की कश्मीर में सुख है.........
कश्मीर वाले कहेंगे की लग्न में सुख है........लग्न वाले कहेंगे की बल-बच्चो में सुख है ......
बल-बचे वाले कहेंगे की निवृति में सुख है.......फिर कहेंगे आखिर में की मरने में सुख है.........
ये एक की नहीं सबकी समस्या है......................
आखिर में कुछ हाथ नहीं लगने वाला ................खली रहे जाओगे..........

भूतकाल से बोध लेकर,वर्तमान में जिओ..........भविष्य की चिंता मत करो............कल क्या होगा?
क्या कहेंगे कल? अरे .......एक पंखी भी आनेवाले कल की नहीं सोचता की कल "डिन्नर" में क्या होगा?......
वो आराम-मस्ती से अपने गोसले में पलता है...........
प्रारब्ध वादी मत बनो.........पुरुषार्थ करे पर चिंतित होके नहीं...........

"मुर्दे को प्रभु देत है.......कपडा लकड़ा आग.......
जिन्दा नर चिंता करे ,उसके बड़े अभाग....."

अरे संसार के सभी दोस्त,कुटुंब के लोग आपको एक दिन कहेंगे की........
"यारो..!!!!हम बेवफाई करेंगे....................
तुम पैदल होंगे ,हम कंधे चलेंगे...."

सो,समय का अधिकतम सदुपयोग करले और जीवन को आनंदित-प्रफुल्लित बनाये..............
"""संसार तेरा घर नहीं, दो चार दिन रहेना यहाँ..................
कर याद अपने राज्य की,स्वराज्य निष्कंटक जहा............"""

हरी ॐ ....हरी ॐ......हरी ॐ...........

Monday, May 24, 2010

मन यदि संसार में उलझता है तो अपना सत्यानाश करता है। मन यदि परमात्मा में लगता है तो अपना एवं अपने सम्पर्क में आने वालों का बेड़ा पार करता है। इसलिए खूब सँभल-सँभलकर जीवन बिताओ। समय बड़ा मूल्यवान है। बीते हुए क्षण फिर वापस नहीं आते। निकला हुआ तीर फिर वापस नहीं आता। निकला हुआ शब्द वापस नहीं आता। सरिता के पानी में तुम एक बार ही स्नान कर सकते हो, दुबारा नहीं। दुबारा गोता लगाते हो तब तक तो वह पानी कहीं का कहीं पहुँच जाता है। ऐसे ही वर्त्तमान काल का तुम एक बार ही उपयोग कर सकते हो। यदि वर्त्तमानकाल भूतकाल बन गया तो वह कभी वापस नहीं लौटेगा। अतः सदैव वर्त्तमानकाल का सदुपयोग करो।

कौन क्या करता है इस झंझट में मत पड़ो। मेरी जात क्या है उसकी क्या जात है, मेरा गाँव कौन-सा है उसका गाँव कौन-सा है – अरे भैया ! सब इसी पृथ्वी पर हैं और एक ही आकाश के नीचे हैं। छोड़ दो मेरे गाँव तेरे गाँव पूछने की झंझट को।

हम यात्रा में जाते हैं तब लोग पूछते हैं- "तुम्हारा कौन सा गाँव ? तुम किधर से आये हो ?" अरे भैया ! हमारा गाँव ब्रह्म है। हम वहीं से आ रहे हैं, उसी में खेल रहे हैं और उसी में समाप्त हो जाएँगे। लेकिन यह भाषा समझने वाला कोई मिलता ही नहीं है। बड़े खेद की बात है कि सब लोग इस मुर्दे की पूछताछ करते हैं कि कहाँ से आये हो। जो मिट्टी से पैदा हुआ, मिट्टी में घूम रहा है और मिट्टी में मिलने के लिए ही बढ़ रहा है उसी का नाम, उसी का गाँव, उसी का पंथ, सम्प्रदाय पूछकर अपना भी समय गँवाते हैं और संतों का भी समय खराब कर देते हैं।

अपना नाम, अपना गाँव सच पूछो तो एक बार भी आपने ठीक से जान लिया तो बेड़ा पार हो जाएगा। अपना गाँव आज तक तुमने नहीं देखा। अपने घर का पता तुम दूसरों से भी नहीं पूछ पाते हो, अपने को तो पता नहीं लेकिन संतों ने जो पता बताया उसको भी नहीं समझ पाते हो।

दूसरे विश्वयुद्ध की एक घटना है। युद्ध में एक फौजी को बहुत बुरी तरह चोट लग गई थी। वह काफी समय तक बेहोश रहा। साथी उस अपने अड्डे पर उठा लाये। डॉक्टरों ने इलाज किया। वह शरीर से तो ठीक हो गया लेकिन अपनी स्मृति को खो बैठा। वह अपना नाम तक भूल चुका था। उसका कार्ड, उसका मिलिटरी का बैज कहीं से भी हाथ न लगा। वह कौन है, कहाँ का निवासी है कुछ भी पता न चल पाया। मनोवैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि उसे अपने देश में घुमाया जाय। अपना गाँव देखते ही उसकी स्मृति जग सकती है, वह ठीक सकता है। व्यवस्था की गई। दो आदमी उसके साथ रखे गये। इंग्लैंड के सब स्टेशनों पर उसे गाड़ी से नीचे उतारा जाता था, स्टेशन का साइन बोर्ड आदि दिखाया जाता, इधर-उधर घुमाया जाता। मरीज का कोई भी प्रतिभाव न दिखता तो उसे गाड़ी में बिठाकर दूसरे स्टेशनों पर ले जाते। इस प्रकार पूरा इंगलैंड घूम चुके लेकिन कहीं भी उसकी स्मृति जागी नहीं। उसके दोनों साथी निराश हो गये। वापस लौटते समय वे लोग लोकल ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। छोटा सा एक स्टेशन आया। गाड़ी रूकी। मरीज को नीचे उतारा। उसे उतारना व्यर्थ था लेकिन चलो, आखिरी दो-चार स्टेशन बाकी हैं तो विधि कर लें। फौजी को नीचे उतारा। साथी चाय-जलपान की व्यवस्था में लगे। उस फौजी ने स्टेशन को देखा, साइन बोर्ड देखा और उसकी स्मृति जाग आयी। वह तुरन्त फाटक से बाहर हो गया और फटाफट चलने लगा। मोहल्ले लाँघता-लाँघता वह अपने घर पहुँच गया। उसने देखा कि यह मेरी माँ है, यह मेरा बाप है। उसकी खोई हुई स्मृति जाग उठी।

सदगुरू भी तुम्हें अलग-अलग प्रयोगों से, अलग-अलग शब्दों से, अलग-अलग प्रक्रियाओं से तुम्हें यात्रा करवाते हैं, शायद तुम अपने असली गाँव का साइन बोर्ड देख लो, शायद तुम अपने गाँव की गली को देख लो, शायद अपना पुराना घर देख लो, जहाँ से तुम सदियों से बाहर निकल आये हो। तुम अपने उस घर की स्मृति खो बैठे हो। शायद तुम्हे उस घर का, गाँव का कुछ पता चल जाय। काश ! तुम्हें स्मृति आ जाय।

जगदगुरू श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कई गाँव दिखाये। सांख्य के द्वारा गाँव दिखाया, योग के द्वारा गाँव दिखाया, निष्काम कर्म के द्वारा गाँव दिखाया लेकिन अर्जुन अपने घर में नहीं जा रहा था। श्रीकृष्ण ने तब कहाः "हे अर्जुन ! अब तेरी मर्जी। यथेच्छसि तथा कुरू।"

अर्जुन बोलता हैः "नहीं मालिक ! प्रभु ऐसा न करो। मेरी बुद्धि कोई निर्णय नहीं ले सकती। मेरी बुद्धि अपने गाँव में प्रवेश नहीं कर पाती।"

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- "तो फिर छोड़ दे अपनी अक्ल-होशियारी का भरोसा छोड़ दे अपनी ऐहिक बातों का, मेरे-तेरे का और जीने-मरने का ख्याल। छोड़ दे करम-धरम की झंझट को। आ जा मेरी शरण में।

Thursday, May 20, 2010

|| श्री सुरेशानंद जी की अमृत वाणी ||

प्राणों की रक्षा हेतु मंत्र

हनुमानजी जब लंका से आये तो राम जी ने उनको पूछा कि , रामजी के वियोग में सीताजी अपने प्राणो की रक्षा कैसे करती हैं ?

तो हनुमान जी ने जो जवाब दिया उसे याद कर लो । अगर आप के घर में कोई अति अस्वस्थ है,जो बहुत बिमार है, अब नहीं बचेंगे ऐसा लगता हो, सभी डॉक्टर दवाईयाँ भी जवाब दे गईं हों, तो ऐसे व्यक्ति की प्राणों की रक्षा इस मंत्र से करो..उस व्यक्ति के पास बैठकर ये हनुमानजी का मंत्र जपो..तो ये सीता जी ने अपने प्राणों की रक्षा कैसे की ये हनुमानजी के वचन हैं..(सब बोलना)

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥

इसक अर्थ भी समझ लीजिये ।
' नाम पाहरू दिवस निसि ' ..... सीता जी के चारों तरफ आप के नाम का पहरा है । क्योंकि वे रात दिन आप के नाम का ही जप करती हैं । सदैव राम जी का ही ध्यान धरती हैं और जब भी आँखें खोलती हैं तो अपने चरणों में नज़र टिकाकर आप के चरण कमलों को ही याद करती रहती हैं ।

तो ' जाहिं प्रान केहिं बाट '..... सोचिये की आप के घर के चरों तरफ कड़ा पहरा है । छत और ज़मीन की तरफ से भी किसी के घुसने का मार्ग बंद कर दिया है, क्या कोई चोर अंदर घुस सकता है..? ऐसे ही सीता जी ने सभी ओर से श्री रामजी का रक्षा कवच धारण कर लिया है ..इस प्रकार वे अपने प्राणों की रक्षा करती हैं । तो ये मंत्र श्रद्धा के साथ जपेंगे तो आप भी किसी के प्राणों की रक्षा कर सकते हैं ।